यह संदेश टिहरी : न जीवन, न लहर कॊ पढने के बाद नेमिष हेमंत ने भेजा है। टिहरी कॊ लेकर नेमिष का अपना नजरिया है और विकास कॊ लेकर अपने तर्क। लेकिन हमारा मानना है कि विकास के सपनॊं कॊ सिर्फ सरकारी चश्मे से तॊ नहीं देखा जाना चाहिए। टिहरी का दर्द सिर्फ एक शहर के डूबने की पीडा नहीं है। टिहरी के साथ हमारा इतिहास वर्तमान और भविष्य भी डूबा है।
मैं बहुत कुछ टिहरी बांध के विषय में नहीं जानता। केवल कुछ सुनता आया हूं। आगे मैं जो कहने जा रहा हूं। शायद उसे पढ़कर लोग यह भी कहे कि विस्थापित नहीं हो। तो ऐसी बातें निकल रही है। पर, मेरा मानना है कि टिहरी को लेकर इतनी हाय-तौब्बा मचाने की जरूरत भी नहीं है। आखिरकार विकास चाहिए तो कुछ कुर्बानी देने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। छोटी सी ही चीज।
गांवों में संपर्क मार्ग बनता है तो कईयों की जमीन, कइयों के मकान उसकी जद में आ जाते हैं। तो क्या सड़क न बने। यह कहते हुए इसका काम रोक देना चाहिए कि विस्थापन किसी भी कीमत पर नहीं होगा। कृषि योग्य भूमि है, इसलिए हम इसे नहीं देंगे। तो फिर हो चूका विकास। वहीं हुआ। विकास नहीं। तो सवाल। हैं तो सवाल। कहां तक जायज है। मुङो नहीं लगता कि टिहरी बांध को लेकर इतना छाती पीटने वालो को विकास के नाम पर सरकार को कटघरें में खड़ा करने का अधिकार है।
फिर यहां तो सवाल इक बांध का है। जिससे बिजली के साथ सिंचाई और पीने के पानी का मिलता है। कहीं-कहीं यह बाढ़ को रोकने तथा सुखा दूर करने में सहायक होता है। अगर सवाल खड़ा करना ही है तो उस सरकारी तंत्र पर करना चाहिए। जिसने पुर्नवास कायदे से न किया हो। बांध से लाभ न मिला हो। रोजगार न मिला हो।
इसका नहीं कि बांध में फला शहर डुब गया। उसके अवशेष दिखाई पड़ रहे है किसी कंकाल की तरह। लिखा तो काफी अच्छा गया। खासकर हिंदी शब्दों का जादूई प्रयोग हुआ है। किसी पटकथा की तरह। मुङो लगता है कि इन सभी संकलनों को पुस्तक का आकार देना चाहिए। फिर कहूंगा। लिखते समय सोचना चाहिए था कि मुद्दा क्या है। भोपाल का गैस त्रासदी कांड या मुबंई का आतंकवादी हमला नहीं है। जहां सरकार की नाकामी, अर्कमण्यता से ऐसी स्थिति पैदा हुई है। या फिर नंदीग्राम नहीं। जहां के भौतिक संसाधनों पर बहुत कुछ टाटा का नैनों कार निर्भर नहीं था।
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2 हफ़्ते पहले
2 टिप्पणियां:
असल मे विकास मुद्दा नहीं है , मुद्दा है विकास की बागडोर किन लोगों के हाथ मे होनी चाहिए और विकास का स्वरुप कैसा होना चाहिए ! टिहरी जैसी बाँध बनाने की प्रक्रिया ७० के दशक से शुरू हुई जिसमे आरबों खरबों रुपया बहाया गया और जो की वास्तविक कीमत से कई गुना ज्यादा है उसके बाद भी ना सही तरीके से पुनर्वास हो पाया है ना ही लोगों के साथ न्याय हुआ है और जैसा की कहा गया की कुल बिजली उत्पादन २५०० मेगावाट का होगा वह भी हवाई साबित हुआ ! बाँध की तमाम मोटर चलने के बाद भी १२०० मेगावाट उत्पादन ही हो रहा है और गर्मियों मे यह उत्पादन और नीचे चला जाता है ! और जैसा की डूब का प्रस्तावित इलाका था उससे ज्यादा इलाका बाँध के नीचे डूब चूका है और जो गाँव डूब के प्रस्तावित जद मे नहीं आ पाए और उनकी जमीने चली गयी है उनको ना मुआवजा मिला ना ही पुनर्वास हुआ है ! और जैसा की कहा गया की बाँध बनाने के बाद टिहरी मे पर्यटन बढेगा , परन्तु पर्यटन के नाम पर बाँध के आस पास की तमाम जमीने माफियों के कब्जे मे हो गयी है स्थानीय लोगों की उसमे कोई हिस्सेदारी या भागीदारी नहीं है , और टिहरी मे भविष्य मे पर्यटन के नाम पर सिर्फ कंक्रीट का जंगल खड़ा नजर आएगा ! बाँध बनाने के बाद आस पास के इलाके को चाय बगान , फल उद्दयान, मछली पालन व कई किस्म के फलों , जड़ी बूटी व लघु उद्योगों के रूप मे विअकसित करने की नीति पर काम किया जा सकता था और स्थानीय लोगों को इसमें हिस्सेदारी के लिए एक वृहद कार्ययोजनाबनाई जा सकती थी ! पर ऐसा कुछ नहीं हुआ है और शायद भविष्य मे ऐसा हो इसकी संभावना भी कम ही है ! और जिस बाँध को आप विकास का पैमाना कह रहे है इस प्रकार का विकास नेताओं, मंत्रियों , नौकरशाहों , ठेकेदारों और माफियाओं के लिए ही लाभदायक हुआ है ना की आम आदमी के लिए !
जैसा की उत्तराखंड मे टिहरी को मॉडल मान कर पूरे उत्तराखंड मे कई बाँध बनाने का काम चल रहा है ! उससे पर्यावरण व जलागम पर फर्क पड़ना तो स्वाभाविक ही है पर सबसे ज्यादा असर स्थानीय लोगों पर पड़ रहा है ! कई गाँव आज बांधों के लिए बनने वाली सुरंग के ऊपर खड़े है और जिनके धसने का खतरा बना हुआ है कोई भी प्राकर्तिक आपदा कभी भी आ सकती है ! सरकार ने आम लोगों की जमीने और जंगल jp और थापर जैसी कंपनियों के हवाले कर दी है और इन गाँव के लोग एक शरणार्थी का जीवन जीने को मजबूर है उन्हें कभी भी पलायन को कहा जा सकता है ! सरकार जिस बेरहमी से बाँध के विरोध करने वाले लोगों पर देशद्रोह का आरोप लगाकर जेल मे बंद कर रही है वह भी असंवैधानिक है ! जिस देशभक्ति और क़ुरबानी और विकास को आधार बना कर जमीने हड़प रही है उस्सी तर्ज पर दिल्ली के किसी भी पोश इलाके के जमीन क्या सरकार कब्जे मे लेने की हिम्मत रखती है या वो लोग भी अपने जमीनों और बंगलों की क़ुरबानी कर सकतेहै , ये सवाल भी विकास और देशभक्ति के नुमाइंदों से पुछा जाना चाहिए !
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