रस्किन बॉन्ड
‘रोमांस आया सवा नौ बजे,’ यह लिखा था रुडयार्ड किपलिंग ने, जिनकी कहानियां पहले-पहल भारतीय रेलवे लाइब्रेरी द्वारा प्रकाशित संग्रह में छपी थीं। जिसने भी उनका उपन्यास किम पढ़ा है, वह लंबी-लंबी ट्रेन यात्राओं का वर्णन कभी नहीं भूल सकता। किम और लामा ने लाहौर से बनारस के बीच ट्रेन से यात्रा की थी।
‘जैसे ही 3.25 साउथ बाउंड चिंघाड़ती हुई स्टेशन में दाखिल हुई तो सोने वाले हरकत में आ गए। स्टेशन चारों ओर चिल्ल पों, आवाजों, पानी और मिठाई बेचने वालों के शोर, पुलिस की झिड़कियों और अपना बोरिया-बिस्तर उठाए, परिवार को संभालती औरतों और उनके पतियों की चें-चें, पें-पें से गुलजार हो उठा।
हिंदुस्तान के भीड़भाड़ भरे रेलवे प्लेटफॉर्म का दृश्य आज भी कमोबेश वैसा ही है। सिर्फ भीड़ ज्यादा बढ़ गई है। ट्रेनों में सफर करने वाले लोगांे की संख्या में सौगुने का इजाफा हो गया है और उतना ही इजाफा हुआ है ट्रेनों की संख्या में भी। आज एक दिन में 7,000 से भी ज्यादा ट्रेनें चलती हैं। वर्ष 1853 में हिंदुस्तान में पहली बार बंबई से ठाणो के बीच भाप के इंजन वाली रेल ने 34 किलोमीटर का सफर तय किया था। हर्षोल्लास करती भीड़, 21 तोपों की सलामी और बैंड की धुनों के बीच 14 डिब्बों के साथ इंजन धीमी गति के साथ रेलवे स्टेशन से बाहर निकला था।
इसके पचास साल बाद ही भारत में रेलवे लाइनों का जाल-सा बिछ गया, उत्तर दक्षिण से और पूरब पश्चिम से जुड़ गया। इससे लोगों को उनके देश की लंबाई, चौड़ाई और विविधता की पड़ताल करने का पहली बार मौका मिला। तब उन्हें यात्राओं से मोहब्बत हुई और यह सिलसिला आज तक चला आ रहा है।
आज देश का प्रत्येक रेलवे स्टेशन चाहे वह छोटा हो या बड़ा, विभिन्न वर्गो के लोगों से हमारा परिचय करवाता है : उत्तर के तीर्थस्थलों की यात्रा करने वाले दक्षिण भारतीय, दक्षिण के सुंदर मंदिरों की ओर प्रस्थान करने वाले उत्तर भारतीय, फूलमालाओं से लदे वीआईपी, अपने भक्तों और प्रशंसकों से घिरे गुरु या ‘भगवान’, हर एक इंच पर कब्जा जमाए बैठे बाराती-घराती, कस्बों की ओर जाते किसान, छुट्टियों में अपने घर जाते सेना के जवान।
मैं स्वीकार करता हूं कि रेलवे प्लेटफॉर्म मेरी कमजोरी रहे हैं। कई बार मैं केवल इसीलिए प्लेटफॉर्म टिकट ले लेता हूं ताकि मैं एक-दो घंटे प्लेटफॉर्म की बेंच पर बिता सकूं। मैं वहां आने-जाने वाली रेलगाड़ियों को निहारता रहता हूं। इधर-उधर होने वाले यात्रियों, व्यापार करने वाले हॉकरों, यात्रियों से बहस करते कुलियों, सामान गंवाने वाले यात्रियों और अपना आपा खोने वाले स्टेशन मास्टर को देखता हूं। मुझे लगता है कि स्टेशनों और स्टेशन मास्टरांे को लेकर मेरे मन में पूरी सहानुभूति रही है। इसकी एक वजह शायद यह हो सकती है कि 1920 के दशक में मेरे नानाजी सेंट्रल रेलवे में स्टेशन मास्टर थे। मेरे खून में उसका थोड़ा-सा असर तो रहेगा ही।
एक कथा लेखक होने के नाते मुझे प्लेटफॉर्म पर फुर्सत के क्षण बिताने के दौरान अक्सर उस समय अपनी कहानी के सूत्र मिल जाते हैं। मार्क ट्वेन ने अपनी किताब इन ए ट्रैम्प अब्रॉड में इसे ‘भारतीय रेलवे स्टेशनों का निरंतर मोहक और शानदार तमाशा कहा है।’ भारत के बारे में अक्सर कहा जाता है कि यहां अनेक जातियां और धर्म परस्पर घुल-मिल जाते हैं, लेकिन ऐसा मानना गलत है। यह वास्तव में लोगों का ऐसा ‘मोजेक’ है, जिसे रेलगाड़ी से देखना सबसे बेहतर है, जो बिखरे हुए टुकड़ों को जोड़ देती हैं।
रेलवे बुकस्टॉल भी मुझे आकषिर्त करते हैं। ये पन्ने उलट-पुलट करने के अच्छे स्थान होते हैं और मैं हमेशा वहां से कुछ न कुछ जरूर खरीदता हूं, फिर भले ही वह पिछले महीने की ज्योतिषीय मार्गदर्शिका ही क्यों न हो। ज्योतिष संबंधी ये किताबें कई बार रेलवे टाइम टेबल के बाजू में रखी होती हैं। दोनों की सलाह से अपना रेलवे टिकट खरीदिए! कुछ यात्री ऐसे होते हैं, अपनी पीठ पर बैग लटकाए यात्रा पर निकल पड़ते हैं। ये दूसरे दर्जे के डिब्बों में यात्रा करते हैं ताकि वे अधिक से अधिक सहयात्रियों से मिल सकें।
बिल इनमें से ही एक है, जो रेलगाड़ी से भारत की लंबाई-चौड़ाई को नाप चुका है। उसने अपनी सीट कभी हुक्का पीने वाले किसान के साथ साझा की है तो कभी केसरिया वस्त्र लपेटे भिक्षु के साथ। उसके बारे में जब अंतिम बार मुझे पता चला, तब वह दक्षिण भारत के किसी शहर डिंडीगुल में था। उसने भारत के सभी 7,000 रेलवे स्टेशनों से गुजरने का संकल्प लिया है।
निचले हिमालय में कांगड़ा घाटी रेलवे से की गई यात्रा मेरी पसंदीदा रेल यात्राओं में से एक है। खासकर यह रेल लाइन इस बात का सबूत है कि रेलवे इंजीनियर प्राकृतिक सुंदरता के साथ तालमेल बिठाकर भी कोई कार्य कर सकते हैं। पहाड़ियों व घाटियों की शोभा व भव्यता के साथ छेड़खानी किए बगैर रेलवे इंजीनियरों ने इस तरह से रेल लाइन बिछाई कि यात्रियों को इस बेहद मंत्रमुग्ध करने वाले क्षेत्र के दर्शन हो सकें।
पटरियों के मोहक मोड़ों, पुलों के सुडौल ढांचों और पहाड़ों की सीधी कटाई से इस क्षेत्र की कठोरता से राहत मिली है। इस लाइन से गुजरना लुकाछिपी के समान एहसास देता है। 1920 के दशक में कांगड़ा रेलवे के इंजीनियरों ने रेलवे लाइन की राह में आने वाली पहाड़ियों की अंधाधुंध खुदाई को बड़ी ही कुशलता के साथ टाला। इस लाइन पर एक भी सुरंग नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि दिल से ताओवादी इंजीनियरों ने प्रकृति के खिलाफ चलने के बजाय उसके साथ चलना स्वीकार किया।
इसके उलट शिमला को देखिए। यदि आप शिमला जाने वाली ट्रेन में बैठते हैं तो आपका आधा सफर धरती की अंतड़ियों से गुजरते हुए ही बीतेगा, जगह-जगह सुरंग ही सुरंग। आपको सौ से अधिक सुरंगें मिलेंगी। इसका मतलब यह नहीं है कि शिमला भ्रमण से मुझे आपत्ति होती है। अपने स्कूली दिनों में मैं इस हिल स्टेशन पर 103 सुरंगों से होते हुए आता था। रास्ते में ट्रेन एक बहुत छोटे से स्टेशन पर रुका करती थी। उस स्टेशन का नाम बड़ोग था, जहां हमेशा बहुत ही शानदार नाश्ता दिया जाता था। दिसंबर के महीने में हम बड़ोग में अमरबेल के गुच्छे खरीदते थे। बड़ोग अमरबेल के लिए काफी प्रसिद्ध था।
मुझे नॉस्टेल्जिया का शिकार नहीं होना चाहिए। यह सच है कि भाप के इंजिन के साथ यात्रा करने का रोमांच कुछ अलग ही था, लेकिन लंबी और अंधेरी सुरंगों में कतई नहीं।
लेखक पद्मश्री विजेता ब्रिटिश मूल के भारतीय साहित्यकार हैं।
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3 हफ़्ते पहले
1 टिप्पणी:
इस महत्वपूर्ण रचना को यहाँ परोसने के लिए आभार।
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छोटी सी गल्ती, जो बड़े-बड़े ब्लॉगर करते हैं।
धरती का हर बाशिंदा महफ़ूज़ रहे, खुशहाल रहे।
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