रविवार, 27 दिसंबर 2009

आंखों का वह नीला रंग


रस्किन बॉन्ड
इतने समय से मेरा लिखा पढ़ते-पढ़ते पाठकों को अब तक ये तो समझ में आ ही गया होगा कि बंदर हमेशा मेरे पीछे पड़े रहे हैं और मुझे तंग करते रहे हैं। और मेरे प्यारे पाठको! ऐसा सोचकर आप कुछ गलत भी नहीं कर रहे हैं। और इस समय, जब मैं ये लिख रहा हूं, अभी भी एक बंदर मेरी खिड़की पर बैठा हुआ अपनी खीसें निपोर रहा है। किस्मत से खिड़की बंद है और वह भीतर नहीं आ सकता। मैं उसकी ओर नजरें करके उसे जीभ दिखाता हूं और वो डरकर पीछे हट जाता है। ऐसा लगता है जैसे मैं उसे अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से कहीं ज्यादा भयानक नजर आता हूं।

लेकिन हर बार ऐसा नहीं होता था। कुछ साल पहले की बात है। उस समय मैं जंगल के आखिरी सिरे पर रहता था। उस समय एक छोटी सी बंदरिया चुपचाप शरमाती हुई सी मेरी खिड़की के चौखट पर बैठी रहती थी और बड़ी दोस्ताना जिज्ञासा और उत्सुकता से मेरी ओर देखती रहती थी। उसकी बिरादरी के किसी और सदस्य ने एक इंसान के रूप में मुझमें कोई रुचि नहीं दिखाई, सिर्फ उस छोटी सी बंदरिया को छोड़कर। मैं भी उसे एक बंदर से ज्यादा एक इंसान के रूप में देखता था।

हर सुबह जब मैं बैठा अपने टाइपराइटर पर काम कर रहा होता था तो वह आ जाती थी और वहां चुपचाप बैठी रहती थी। जब मैं कोई कहानी या लेख टाइप कर रहा होता तो उसकी निगाहें मुझ पर ही टिकी रहती थीं। शायद यह मेरा टाइपराइटर था, जो उसे आकर्षित करता था। लेकिन मुझे यह सोचना अच्छा लगता है कि वह मेरी नीली आंखों के आकर्षण में बंधी हुई थी। उसकी आंखें भी नीली थीं। अकसर ऐसा नहीं होता है कि लड़कियां मुझे लेकर रूमानी कल्पनाएं करती हों, लेकिन मुझे यह सोचकर बहुत अच्छा लगता है कि वह छोटी सी बंदरिया मेरे प्रति आकर्षित थी।

उसकी आंखों में एक शांत, सौम्य और अपनी ओर खींचने वाला भाव था। वह बहुत धीरे-धीरे मुस्कराती और किटकिट की आवाज करती थी। इस आवाज को मैं यूं समझता था कि मानो यह कोई अंतरंग बातचीत हो। अगर मैं उसकी ओर देखता तो वह अखरोट के पेड़ की डाली से कूदकर मेरी खिड़की पर आकर बैठ जाती थी और मेरी ओर ऐसी नजरों से देखती मानो कह रही हो कि मैं भी वहां उसके पास जाऊं। लेकिन मेरे पेड़ पर चढ़ने के दिन बीत चुके थे। साथ ही मैं उसके माता-पिता और जान-पहचान वालों से बहुत खौफ भी खाता था।

एक दिन मैं कमरे में आया और देखा कि वह टाइपराइटर पर बैठी हुई उसके बटनों से खेल रही थी। जब उसने मुझे देखा तो भागकर वापस खिड़की पर चली गई और मेरी तरफ अपराध-बोध भरी नजरों से देखने लगी। मैंने टाइपराइटर पर लगे हुए कागज की ओर निगाह घुमाई। क्या वह मेरे लिए कोई संदेश टाइप कर रही थी? कागज पर कुछ इस तरह लिखा हुआ था- *!,.-रु;:0 - और इसके बाद पंक्ति टूट गई थी। मुझे पूरा विश्वास है कि वह ‘लव’ लिखने की कोशिश कर रही थी।

लेकिन मुझे कभी भी पक्के तौर पर इस बात का पता नहीं चल पाया कि वह क्या लिखना चाह रही थी। जाड़ा आया, तेज बर्फ पड़नी शुरू हो गई और उन बंदरों की पूरी बिरादरी ही वहां से चली गई। मेरी छोटी बंदरिया को भी वे अपने साथ लेते गए। उसके बाद मैंने उसे दोबारा कभी नहीं देखा। शायद उसकी बिरादरी के लोगों ने उसकी कहीं शादी कर दी होगी।

जब भी शादी के बारे में बात चलती है तो अकसर ही मेरे साथ सहानुभूति रखने वाले पाठकों द्वारा मुझसे यह सवाल पूछा जाता है कि आखिर मैंने कभी शादी क्यों नहीं की? यह एक बहुत लंबी और दुखद कहानी है। यहां इन बातों के बीच उस दुखभरी कहानी का जिक्र कतई वाजिब नहीं होगा। लेकिन उसकी जगह मैं अपने एक अंकल बर्थी की कहानी सुना सकता हूं कि क्यों उन्होंने कभी शादी नहीं की। अंकल बर्थी जब जवान थे तो वे इशापोर राइफल फैक्ट्री में काम करते थे। यह फैक्ट्री कलकत्ता के बाहर थी।

आजादी के पहले हिंदुस्तान में बहुत सारे एंग्लो इंडियन और यूरोपीय समुदाय के लोग रहते थे। उनमें से बहुत सारे लोग उस फैक्ट्री में नौकरी करते थे। अंकल बर्थी थोड़ा अधीर और जल्दबाज किस्म के व्यक्ति थे। वे एक लड़की से प्रेम करते थे, जो वहीं सड़क की दूसरी ओर रहा करती थी। एक दिन की बात है। बहुत भीड़-भड़क्के और शोरगुल के नजदीक ही आम का एक बगीचा था। उस बगीचे में उन्होंने बड़ी अधीरता और बेताबी से उस लड़की के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। वह लड़की बहुत उत्साह और खुशी से विवाह के लिए राजी हो गई।

लड़की उनसे उम्र में बड़ी थी और काफी लंबी भी। उस लड़की का फिगर 46-46-46 था। उस लड़की को मैरेलिन दिएत्रिच या मर्लिन मुनरो से जरूर रश्क रहा होगा। लड़की के माता-पिता शादी के लिए राजी हो गए थे। विवाह की सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं, जब अंकल बर्थी ने अपने इस निर्णय के बारे में एक बार फिर से विचार करना शुरू किया। वह हमेशा हर चीज के बारे में दोबारा सोचते थे। जब उनका वह थोड़े समय का आकर्षण खत्म हो गया तो उन्हें इस बात पर आश्चर्य होने लगा कि सबसे पहली बात तो यह कि उन्होंने उस लड़की में आखिर ऐसा क्या देख लिया। उस लड़की को नाचना पसंद था और बर्थी नाच नहीं पाते थे।

उसका पढ़ना सिर्फ कुछ फिल्मी पत्रिकाओं जैसे हॉलीवुड या रोमांस तक ही सीमित था, जबकि अंकल बर्थी मक्सिम गोर्की और एमिल जोला को भी पढ़ा करते थे। वह खाना नहीं बना सकती थी और न ही अंकल को खाना बनाना आता था। खानसामा रखना बहुत खर्चीला था। उसे बाहर खरीदारी के लिए जाना बहुत पसंद था और बर्थी अंकल की तनख्वाह थी तीन सौ रुपया महीना। शादी की तारीख पक्की हो गई। वह महान दिन आ पहुंचा और चर्च ढेर सारे मित्रों, रिश्तेदारों और शुभचिंतकों से भर उठा। पादरी ने अपना गाउन पहना और विवाह की प्रक्रिया शुरू करने के लिए तैयार हो गया। दुल्हन अपने सफेद शादी के जोड़े में सजी हुई थी। इसी जोड़े में उसकी मां की भी शादी हुई थी। लेकिन अंकल बर्थी का वहां कोई अता-पता नहीं था। आधा घंटा गुजर गया। फिर एक घंटा, दो घंटा बीत गया, लेकिन दूल्हे का कहीं पता नहीं चला।

दरअसल अंकल बर्थी कलकत्ता से भाग गए थे और कहीं जाकर भूमिगत हो गए थे। उसके बाद कुछ समय तक वे भूमिगत ही रहे। इशापोर में हर कोई उनके लौटने का इंतजार कर रहा था। उन सभी ने बहुत अलग-अलग और मजेदार तरीके से सोच रखा था कि वे अंकल बर्थी के साथ क्या करेंगे। उनमें से कुछ लोग तो आज भी उनका इंतजार कर रहे हैं।

ऑस्कर वाइल्ड ने कहा था, ‘शादी एक ऐसा रोमांस है, जिसमें पहले ही अध्याय में नायक की मृत्यु हो जाती है।’ अंकल बर्थी तो प्राक्कथन में ही गायब हो गए थे।

लेखक पद्मश्री विजेता ब्रिटिश मूल के भारतीय साहित्यकार हैं।

शनिवार, 26 दिसंबर 2009

तुंगनाथ धाम: जहां हैं शिव की बांहें


समुद्रतल से १३,०७२ फीट की ऊंचाई पर बसा तुंगनाथ धाम पर्वतीय क्षेत्र का सबसे ऊंचा शिव मंदिर है। पचास फीट ऊंचे इस इंदिर की बनावट और कला देखते ही बनती है। देखनेवाली बात यह है कि यह धाम जितनी अधिक ऊंचाई पर बसा है यहां पहुंचना उतना ही आसान और कम समय लगता है। चमोली के ठीक बद्रीनाथ और केदारनाथ के बीच गोपेश्वर-ऊखीमठ मोटर मार्ग पर चोपता नामक चट्टी से पैदल तीन किलोमीटर चढ़ाई के बाद तुंगनाथ धाम पहुंच जाते हैं।

यह मंदिर किस काल का है और किसने बनाया इसकी प्रामाणिक जानकारी अभी तक नहीं मिल पाई है। क्षेत्रीय लोग पाण्डवॊं द्वारा निर्मित बताते हैं। ऐसी भी मान्यता है कि आदि गुरु शंकराचार्य ने उत्तराखंड यात्रा के दौरान इस मंदिर को बनाया था। मंदिर के गर्भगृह में शंकराचार्य की भव्य मूर्ति है, तो पाण्डवॊं की भी प्रतिमायें हैं। वेदव्यास और काल भैरॊ की दो अष्टधातु की मूर्तियों सहित गर्भगृह में दुर्लभ मूर्तियों की भरमार है। लगभग सभी प्रमुख देवी-देवता यहां आसीन हैं। एक फुट ऊंचा उत्तर की ओर झुका श्यामवर्णी शिवलिंग विशेष दर्शनीय है। स्थानीय लोग इसे शिवजी की बांह कहते हैं। इसकी भी दिलचस्प लोककथा है।

एक बार पाण्डव श्राप मुक्ति के लिए बाबा भोलेनाथ को खुश करने के लिए घूमते-घूमते केदारनाथ पहुंचे। शिवजी कुपित थे और पांडवॊं को दर्शन देना नहीं चाहते थे। केदारनाथ में जहां स्थानीय लोगों की भैंसें चर रही थी, वहीं शिवाजी ने एक भैंसे का रूप धारण कर लिया और भैसों के झुण्ड में शामिल हो गये। अचानक ही एक असाधारण और नये भैंस को टपका देखकर भीम को बेहद आश्चर्य हुआ। उन्हें शक हुआ कि कहीं शिवजी की करामात तो नहीं है।

भीम ने सोचा एक संकरी घाटी से सभी भैंसे गुजरेंगी, वहीं भीम पांव जमाकर खड़े हो गए। कुछ देर में सभी भैंसें गुजर गईं लेकिन भैंस बने शिव ही पीछे रह गये और धर्मसंकट में पड़ गये। वे कैसे भीम की टांगों के नीचे से गुजरें? भीम माजरा समझ गये। उन्होंने उस असाधारण भैंस को पकड़ना चाहा तो भैंस जमीन के अन्दर धंसने लगी भीम केवल पृष्ठभाग ही पकड़ पाये। कहा जाता है कि शिवजी के ये अंग विग्रह के रूप में पांच जगहों पर निकले। पृष्ठभाग केदारनाथ में निकला। जहां आज भी मुख्यत: इसकी पूजा होती है। मध्य भाग मदमहेश्वर में निकला, बाहें तुंगनाथ, मुंह रुद्रनाथ और जटायें कल्पनाथ में प्रकट हुईं। ये पांचों पांच धाम पंचकेदार के नाम से जाने जाते हैं।

गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

पहाड़ की चोटी पर समुद्र


उत्तराखंड की भारत-चीन सीमा पर फौजी जिंदगी के अलावा प्रकृति का एक अद्भुत चमत्कार भी है। पहाड़ की १७ हजार फीट ऊंची चोटी पर समुद्र। सौ करोड़ साल पुराना यह समुद्र पलक-पांवड़े बिछाए लफथल में आपका इंतजार कर रहा है। मगरमच्छ, कछुआ, घोंघा, सीप, केंचुआ, व्हेल, शार्क, सांप और स्टार फिश और समुद्री जीवों की अनगिनत किस्में आपके स्पर्श को बेताब हैं। अरे हां, आपकी पंसदीदा मछलियों की ढेरों किस्में भी लफथल में जहां-तहां बिखरी हैं। मगर ध्यान रहे ये मछलियां खाई नहीं जा सकती हैं क्योंकि ये करोड़ों वर्ष बासी हैं और आपके इंतजार में सूखकर पत्थर हो गई हैं।

पहाड़ की चोटी पर समुद्री जीव? चौंकिएगा नहीं। उत्तराखंड के चमोली जनपद स्थित लफथल की चोटी पर फैली समुद्री जीवों की लंबी श्रृंखला दरअसल जीवाश्मों की शक्ल में मौजूद हैं। काबिलेगौर है कि आज जहां हिमालय है, पांच करोड़ साल पहले वहां टेथिस सागर हुआ करता था। लफथल वो इलाका है जो उस वक्त टेथिस सागर की तलहटी में था। टेथिस से हिमालय बनने की प्रक्रिया में तब प्रागैतिहासिक काल की नदियों द्वारा तात्कालिक महाद्वीपों से लाई गई मिट्टी की तहों में समुद्री जीव दब गए। पृथ्वी की गर्मी और दबाव से वो धूल की परतें चट्टानों में बदल गईं। पृथ्वी के लगातार पड़ते बलों ने इन चट्टानों को पहाड़ की चोटी तक पहुंचा दिया। यही कारण है कि इन चट्टानों में दबे समुद्री जीवों के जीवाश्म लफथल की चोटी पर शान से विराजमान हैं।

उत्तराखंड के मानचित्र पर लफथल इलाका भले ही उपेझित पड़ा है मगर टेथिसिसन पर्वत श्रृंखला की इस चोटी पर सौ करोड़ से पांच करोड़ साल पुराना समुद्री इतिहास बेहिसाब बिखरा पड़ा है। जीवाश्म विग्यानियों के लिए तो यह चोटी खुली प्रयोगशाला है। लफथल पहुंचकर यह देखना भी सचमुच कौतूहल भरा है कि समुद्र में जब हिमालय की शुरुआत हुई थी तो उस वक्त कैसा रहा होगा यहां के जीवों का जीवन। लफथल में ५० करोड़ साल पुराने रीढ़ वाले (कोन्ड्रोन प्रजाति) के समुद्री जीवों के अवशेष भी हैं तो २५ करोड़ साल पुराने मछली के जीवाश्म भी।

१३ से १७ करोड़ साल पुराने शिफेलोपोडा प्रजाति के समुद्री जीवों को पत्थर में निहारना भी कम रोमांचकारी नहीं है। शिफेलोपोडा प्रजाति के जीव तो यहां यह भी बताते हैं कि १३ करोड़ वर्ष पूर्व टेथिस सागर की गहराई १००० मीटर रही होगी। वाडिया भू-विग्यान संस्थान के जीवाश्म विग्यानी डॉ आर जे आजमी कहते हैं कि लफथल तो वो जगह है जहां हिमालय की उत्पत्ति और समुद्र के आने-जाने की कहानी जन्म लेती है। समय के साथ पत्थर बन गए समुद्री जीवों के जीवाश्मों में पूरे एक जमाने का रहस्य छिपा हुआ है। लफथल की शक्ल में मिले कुदरत के इस नायाब तोहफे को उत्तराखंड और केंद्र सरकार भले ही पूरी तरह से भूल गए हैं मगर बावजूद इसके यहां फैले अवशेष समुद्र विग्यान की एक पूरी कहानी बयां करते हैं।

दरअसल, समुद्र को समझने की एक खुली खिड़की है लफथल। पांच करोड़ साल पहले तक कैसा रहा होगा टेथिस सागर? समय के साथ क्या बदलाव आए? पानी के खारेपन और तापमान ने समुद्री जीवों को कितना प्रभावित किया इसका पूरा ब्यौरा भी लफथल में मौजूद है। यही नहीं, विभिन्न प्रजाति के समुद्री जीव बताते हैं कि समुद्र की गहराई किस काल में क्या रही होगी। जीवों में शुरूआती लक्शण क्या थे। पानी में नमक और रोशनी कितनी पहुंच रही थी तब। सबकुछ लफथल की चोटी पर विराजमान है। वाडिया भू-विग्यान संस्थान के ही जीवाश्म विग्यानी बी एन तिवारी कहते हैं कि लफथल में मिलने वाले जीवाश्म हमारे पुरखों की डायरी हैं। डायरी को पढ़ते हुए हम समुद्र का इतिहास तो जान ही रहे होते हैं हिमालय के गुजरे कल से भी रू-ब-रू होते जाते हैं। डॉ. तिवारी के कथन को जीवाश्म विग्यानी किशोर कुमार कुछ यूं आगे बढ़ाते हैं- समुद्र की तलहटी कैसे पहाड़ की चोटी में तब्दील हो गई यह अपने आप में चौंकाने वाली बात है। समय से साथ पत्थर बन गए जीवाश्मों में एक पूरा समुद्री संसार छिपा हुआ है।

लफथल में अतीत के समुद्र के दर्शन करना जहां अपने आप में रोमांच पैदा करता है वहीं उत्तराखंड में प्रकृति के इस अद्भुत चमत्कार से बेरुखी भी कम चौंकाने वाली नहीं है। दुनियाभर में लफथल जैसी जगहें जहां भी हैं वहां की सरकारें इन्हें सहेजे हुए हैं। दुर्भाग्य है कि प्रागैतिहासिक महत्व वाली जगह उत्तराखंड में सूनी पड़ी हैं। पर्यटन विभाग के मानचित्र में तो दूर स्थानीय लोग तक इस जगह से बेखबर हैं।

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

एक गुमनाम जिसके नाम पर है एवरेस्ट

पर्वतॊं की रानी मसूरी से भला कौन अपरिचित है? सौंदर्य से परे इस शहर की समृद्धि ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी है। कम ही लोग जानते हैं कि दुनिया के सबसे ऊंचे पर्वत शिखर माउंट एरेस्ट की खोज मसूरी में रहे महान सर्वेक्षक जार्ज एवरेस्ट के सहयोगियों ने की थी। इस खोजी पुरुष के नाम पर ही इस शिखर का नाम एवरेस्ट पड़ा।

मसूरी शहर से कोई छह किमी पश्चिम की ओर लगभग आठ हजार फीट ऊंचाई पर एक स्थल है- पार्क स्टेट। निहायत शांत निर्जन। एक ऊंचे टीले पर खंडहर हो चुकी पुरानी इमारत दृष्टिगोचर होती है। इसी ऐतिहासिक स्थल है पर सर जार्ज एवरेस्ट ने डेरा डाला और हीं गहन शोध कर उन्होंने दुनिया के सबसे ऊंचे हिमशिखर का पता लगाया था।

जार्ज एवरेस्ट ब्रिटिश आर्टलरी सेना में अधिकारी थे। सन् १८०३ से लेकर १८४३ तक वे भारत में सर्वेयर जनरल के पद में रहे। भारत में सबसे पहले आधुनिक भू-गणितीय सर्वेक्षण की नींव रखने का श्रेय उन्हें ही जाता है। वे असाधारण प्रतिभा के अन्वेषी सर्वेक्षक थे। भारत में पहुंचते ही उन्होंने सर्वेक्षण कार्य शुरू कर दिया। वे अपने दल के साथ भिन्न क्षेत्रों से होते हुए उत्तर प्रदेश के मथुरा मुजफ्फरनगर पहुंचे। इन जगहों पर वे कुछ दिन रुके और अपने सर्वेक्षण कार्य योजना को अंजाम देते रहे। आज भी मुजफ्फरनगर में उनकी यादगार के रूप में सर जार्ज एवरेस्ट भवन उस वक्त की याद दिलाता है। मुजफ्फरनगर से आगे बढ़ते ही वे सन् १८३३ में मसूरी पहुंचे। मसूरी के प्राकृतिक सौंदर्य से वशीभूत होकर उन्होंने यहीं डेरा डाल लिया और सर्वेक्षण कार्य जारी रखा।

ब्रिटिश सरकार ने उनके भारत में किए जा रहे सर्वेक्षण कार्यो से प्रसन्न होकर उन्हें भारत का सर्वप्रथम सर्वेयर जनरल नियुक्त किया। इसी दौरान उन्होंने दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत चोटी की खोज करके विश्व भर में तहलका मचा दिया। उन्हीं के नाम से उस शिखर का नाम पड़ गया। १८४३ में वे अपने पद से सेवानिवृत्त होकर अपने देश इंगलैंड चले गये। सन् १८६ ६ में उनकी मृत्यु हो गई। उनके किए गये अथक कार्य अमिट इतिहास बनकर अमर हो गये।

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

बिस्सू मेला: आज भी जारी है युद्ध

यूं तो बिषुवत संक्रांति के दिन उत्तराखंड में जगह-जगह बड़े मेले जुटते हैं। लेकिन गढ़वाल के पश्चिमी छोर में बसे उत्तरकाशी जनपद के सीमांत गांवॊं में बिस्सू मेले का लोगों को बेसब्री से इंतजार रहता है। हिमाचल की सीमा से लगे गांव भुटाणू, टिकोची, मैंजणी, किरोली में यह मेला कुछ निराला ही होता है। तीन दिन तक चलने वाले इस मेले का नाम बिषुवत संक्रांति के नाम से बिगड़कर बिस्सू पड़ गया।

मेले में धनुष और बाणों से रोमांचकारी युद्ध होता है और यह तथाकथित संग्राम तीन दिन तक चलता है। इसमें रणबांकुरे इन्हीं गांवॊं के लोग होते हैं। उत्सह जोश का यह आलम रहता है कि युवा तो क्या बूढ़े भी अपना कौशल दिखाने में पीछे नहीं रहते। ऐसा लगता है जैसे मेला स्थल रणभूमि में तब्दील हो गया हो। कुछ ऐसे ही तुमुल नाद में बजते हैं रणसिंधे और ढोल-दमाऊ वाद्य-मंत्र। दर्शकों की ठसाठस भीड़ मकान की छतों तक जमी रहती है।

घबराइए नहीं, यह युद्ध असल नहीं है। यह एक लोक कला का रूप है और नृत्य शैली में किया जाता है। यहां की बोली में इस युद्ध को ‘ठोडा कहते हैं। खिलाड़ियों को ठोडोरी कहा जाता है। धनुष-तीर के साथ यह नृत्यमय युद्ध बिना रुके चलता रहता है। दर्शक उत्साह बढ़ाते रहते हैं। नगाड़े बजाते रहते हैं। लयबद्ध ताल पर ढोल,-दमाऊ के स्वर खनकते रहते हैं। ताल बदलते ही युद्ध नृत्य का अंदाज भी बदलता रहता है। युवक -युवतियां मिलकर सामूहिक नृत्य करते हैं।

वि‍द्वानॊं का मानना है कि यह विधा महाभारत के युद्ध का ही प्रतीकात्मक रूप है। यह खेल हिमाचल प्रदेश के सोलन, शिमला सिरमौर जिले के दूरस्थ गांवॊं में भी खेला जाता है। आज के बदलते परिवेश में टूटती-बिखरती मिथकीय मान्यताओं के बीच भी सुदूरर्ती क्षेत्रों की लोक परंपराएं धुंधलाई हैं। आज के परमाणु युग में उनका पौराणिक धनुष बाण युद्ध जारी है।

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

पत्थर में खिलता है कमल


वर्ष में ज्यादातर समय बर्फ से ढके हिमालय की छटा वर्षा ऋतु के दौरान निराली हो जाती है। जून तक के महीने में सूर्य की तीखी किरणें हिमालय पर जमी बर्फ को शायद ही विचलित कर पाती हो लेकिन मानसून आने के साथ ही प्रकृति अपना रंग दिखाने लगती है और चारों ओर होती है जड़ी-बूटियों, फूलों की बहार। इस मनमोहक हरियाली के बीच होती है प्रकृति रूपी चित्रकार की अनूठी रचना ‘ब्रह्मकमलज् जिसका जीवन सिर्फ तीन महीने का होता है।

अगस्त सितंबर में यहां चट्टानों पत्थरों पर आसानी से खिलनेवाला ब्रह्मकमल एक दुर्लभ, काफी बड़े आकार का और अत्यन्त सुगंध युक्त होता है। संपूर्ण उत्तराखंड में इसे सुख-सौभाग्य और समृद्धि का प्रतीक भी माना जाता है, इसलिए इसे एक अनमोल विरासत के तौर पर लोग अपने घरों में संभाल कर रखते हैं। यह फूल मुरझाने पर भी खुशबू को फैलाए रखता है। क्रीम रंग की पंखुड़ियों से लिपटे रहने से फूल का नाम कमल है लेकिन इसका कमल की जाति से कोई संबंध नहीं है।

इससे एक पौराणिक कथा जुड़ी है। कहा जाता है कि पांडों के अज्ञातास के दौरान गढ़वाल स्थित पाण्डुकेसर के निकट अलकनंदा और पुष्पाती के संगम पर जब द्रोपदी स्नान कर रही थी तो उनकी नजर एक ऐसे मनमोहक पुष्प पर पड़ी जो तेज धारा में बहता हुआ उनकी आंखों से ओझल हो गया। द्रोपदी ने भीम से उस पुष्प को ढूंढ लाने का आग्रह किया। भीम उसे ढूंढते-ढूंढते फूलों की घाटी तक जा पहुंचे। इन्हीं फूलों में सबसे आकर्षक और दिव्य पुष्प था-ब्रह्मकमल। भीम इन ब्रह्मकमलों को तोड़ लाए और द्रोपदी ने इसी से भगान की पूजा की।

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

रहस्यमय रूपकुंड, जहां बिखरे हैं नरकंकाल



दुर्गम यात्रा के शौकीनों के लिए गढवाल वास्तव में स्वर्ग है। ऊंचे हिमशिखरों की छांव में यहां ऐसे स्थल हैं जो पर्यटकों को प्रबल आकर्षण की डोर से बांध लेती हैं। इन्हीं में एक अद्वितीय सौन्दर्य स्थली है-सुप्रसिद्ध रूपकुण्ड झील जो आज भी पर्यटकों के लिए एक रहस्य बनी हुई है। रहस्य का कारण है झील के किनारे प्राचीन मानव अस्थियों का बिखरा होना। असाधारण नरकंकाल पाये जाने के कारण यह रहस्यमयी झील विश्वविख्यात हो गई है।

इस प्रसिद्धि के बावजूद रहस्य का पता नहीं चल पाया कि वे लोग कौन थे जो यहां ढेर हो गये? बहरहाल यह स्थल अब साहसी पर्यटकों के लिये आकर्षण का केन्द्र बना है। सन् १९५७ में लखनऊ विश्ववि‌द्धालय से विख्यात नृंशशास्त्री डा. डी.एन.मजूमदार ने यहां आकर कुछ मानव हड्डियों के नमूने अमेरिकी मानव शरीर विशेषज्ञ डा. गिफन को भेजे जिन्होंने रेडियो कार्बन विधि से परीक्षण कर इन अस्थियों को ४००-६ ०० साल पुराना बताया।

यह स्थल चमोली जनपद में समुद्रतल से ४७७८ मीटर की ऊंचाई पर और नन्दाघुंटी शिखर की तलहटी पर स्थित है। झील से सटा ज्यूरांगली दर्रा (५३५५मीटर) है। रूपकुंड तक का मार्ग अत्यंत मोहक और प्राकृतिक छटाओं से भरा है। घने जंगल, मखमली घास के चरागाह, फूलों की बहार, झरनों नदी-नालों का शोर, बड़ी-बड़ी गुफाएं, गांव, खेत सर्वत्र एक सम्मोहन पसरा हुआ है। गहरी खामोशी में डूबी चट्टानों के बीहड़ जमघट में भी एक आनन्द छुपा है। रूपकुंड के लिए आखिरी बस स्टाप बगरीगाड़ है। यहां से ४१ किमी की पैदल यात्रा करनी पड़ती है। बगरीगाड़ में पोर्टर गाइड मिल जाते हैं, यहीं से इन्हें साथ ले चलना बेहतर रहता है। खाने-पीने, पहनने का पर्याप्त सामान लेकर ही ट्रैकिंग शुरू करनी चाहिए।

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

हिमालय में एटमी आफत

चीन के परमाणु संयत्रों पर नजर रखने के लिए नंदादेवी पर लगाया गया न्यूक्लियर डिवाइस अब तक लापता, बोस्टन कैमिकल डेटा कॉरपोरेशन की रिपोर्ट में परमाणु रेडिएशन की पुष्टि
लक्ष्मी प्रसाद पंत

कोपेनहेगन में धरती को बचाने के लिए जहां 192 देशों के प्रतिनिधि चिंतन-मनन में जुटे हैं वहीं हिमालय में 44 साल से गुम न्यूक्लियर डिवाइस को लेकर कहीं कोई चिंता नहीं है। हकीकत यह है कि चार पौंड प्लूटोनियम से भरी यह डिवाइस ग्लोबल वार्मिग से कई गुना खतरनाक है। बोस्टन कैमिकल डेटा कॉरपोरेशन की हालिया रिपोर्ट तो यहां तक कह रही है कि जिस नंदादेवी पर्वत पर यह न्यूकिलर डिवाइस गुम हुआ था उस क्षेत्र में रेडिएशन शुरू भी हो गया है।
इस लापता न्यूक्लियर डिवाइस का सच आखिर क्या है? इसी साल का जाब खोजने के लिए जब मैं नंदादेवी सेंचुरी के आखिरी गांव मलारी और लाता पहुंचा तो यह जानकर हैरान रह गया कि इन दोनों गांवॊं में 44 साल बाद भी न्यूक्लियर डिवाइस का खौफ जस का तस है। नंदादेवी बचाओ अभियान से जुड़े सक्रिय कार्यकर्ता सुनील कैंथोला तो यहां तक कहते हैं कि गुजरे 44 सालों से इस मसले पर चिंता जताई रही है लेकिन सरकारी स्तर पर अभी तक कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं हुई है। बकौल कैंथॊला पानी में परमाणु रेडिएशन को लेकर बोस्टन कैमिकल डेटा कॉरपोरेशन की रिपोर्ट ने हमारी शंकाओं को सच कर दिया है। काबिलेगौर है कि 1965 को नंदादेवी के जिस कैप चार से न्यूक्लियर डिवाइस गायब हुआ था उसके ठीक नीचे श्रृषि गंगा निकलती है जो गंगा का प्रमुख जल स्रोत है। असल खतरा अब यह कि अगर डिवाइस से रेडिएशन होता है, या जैसा कि बोस्टन कैमिकल डेटा कॉरपोरेशन की रिपोर्ट बताती है कि रेडिएशन हो रहा है तो हालात विस्फॊटक हैं। रिपोर्ट यह भी कह रही है कि जहां न्यूक्लियर डिवाइस गुम हुआ था उस पूरे क्षेत्र की फिर से गहन साइंटिफिक पड़ताल होनी चाहिए। चिंताजनक यह भी है कि इस रिपोर्ट के बाद भी भारत सरकार हरकत में नहीं आई है। अभी तक ऋषि गंगा और गंगा के पानी के सैंपल का टेस्ट न कराया जाना भी सवाल खड़े कर रहा है।

खतरनाक है रिसाव

1965 में चीन के परमाणु संयत्रों और हरकतों पर नजर रखने के लिए अमरीका और भारत ने मिलकर उत्तराखंड की
नंदादेवी पर्वत के कैंप चार पर न्यूक्लियर डिवाइस रखा था। लेकिन बर्फीला तूफान आने के कारण डिवाइस बर्फ में कहीं गुम हो गया और आज तक नहीं मिल पाया है। इसमें प्लूटोनियम 238 और प्लूटोनियम 239 का इस्तेमाल किया गया जिसका रिसाव बहुत खतरनाक है।

खोजने के लिए चले अभियान
16 मई 1966 को न्यूकिलर डिवाइस को ढूंढ़ने के लिए पहला अभियान चला। डिवाइस को खोजने के लिए 2009 तक क्लीन नंदादेवी के नाम से करीब 18 अभियान चलाए जा चुके हैं। भारत सरकार डिवाइस को ढूंढ़ने के लिए अमेरिका के छह हस्की हैलिकाप्टर तक की मदद भी ले चुकी है लेकिन कामयाबी अभी दूर है।

और अब खतरा

वैसे तो न्यूक्लियर डिवाइस से खतरा १९६५ से बना हुआ है लेकिन 2005-०६ में अमेरिकी पर्वतारॊही पेट टाकेडा नंदादेवी सेंचुरी से मिट्टी और पानी की रेत के कुछ सैंपल लेकर गए। उन्होंने इनकी जांच जब अमरीका की बोस्टन कैमिकल डाटा कॉरपोरेशन की थी तो इस सैंपल के परमाणु विकिरण से प्रदूषित होने का खुलासा हुआ। सैंपल की जांच में प्लूटोनियम 238 और प्लूटोनियम 239 के अंश मिले हैं। काबिलेगौर है कि अकेले प्लूटोनियम 238 की आधी उम्र ही 90 साल है और यह पूरी तरह खत्म होने में एक हजार साल लेगा।

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

फूलों की अनूठी घाटी

जहां मिलती हैं फूलों की तीन सौ प्रजातियां
हिममण्डित शिखरों की गोद में बसी विश्व प्रसिद्ध फूलों की घाटी से भला कौन अपरिचित है। बात सन् १९३१ की है, गढ़वाल स्थित कामेट शिखर (२५,४४७ फीट) पर आरोहण करने वाले दल में प्रसिद्ध ब्रिटिश पर्वतारोही फ्रैंक स्मिथ थे जो सफल आरोहण के बाद धौली गंगा के निकट गमशाली गांव से रास्ता भटक जाने के बाद पश्चिम की ओर बढ़ते-बढ़ते १६७०० फीट ऊंचा दर्रा पार करते भ्यूंडार घाटी पहुंचे। वहां से कुछ आगे बढ़ने पर सहसा अकल्पनीय खुशी से उछल पड़े, क्योंकि वे एक स्वर्गिक खूबसूरत घाटी में पांव रख चुके थे जहां राशि-राशि प्राकृतिक फूलों का सैलाब लहलहा रहा था। वे भावविभॊर और मंत्रमुग्ध होकर फूलों से मिले सौंदर्य को देखकर ठगे से रह गए। और अपना तम्बू वहीं तान दिया।

सन् १९३७ में वे दुबारा इस घाटी में पहुंचे। गहन शोध कर उन्होंने लगभग ३०० किस्म की फूल की प्रजातियों को ढूंढ निकाला। वहां से लौटकर उन्होंने Valley of flowers पुस्तक लिखी जिससे फूलों की यह घाटी विश्व प्रसिद्ध हो गई। ८ ७.५ वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैली यह घाटी नम्बर-दिसम्बर से अप्रैल-मई तक बर्फ से ढकी रहती है। जून में बर्फ पिघलने के साथ ही हरियाली शुरू हो जाती है। जुलाई से घाटी में फूलों से महकनी शुरू हो जाती है। अगस्त में घाटी में फूलों का यौवन सर्वाधिक दर्शनीय और आकर्षक हो जाता है। अक्टूबर में फूल धीरे-धीरे कुम्हला जाते हैं।

फूलों की घाटी में ब्रह्मकमल, एकोनिटस एट्राक्स, रोडोड्रेडोन (बुरांस), पौपी, रोजी, र्जीनिया, लिगुजेरिया, सेक्सीफेगा, ससूरिया ओवेलाटा, हेटरीफिल्लम, भूतकोशी, पेस्टोरिस, थाइमस लाइनियेरिस, एंजिलिका ग्लूका, जैसियाना कुरा, ओनेस्मा, इमोडी, रियम इमोडी, रियम यूरक्रोफिटटोनम, नाडरेल्टैकिस ग्रेंडिफोरम, पोलिगेनिटिम र्टिसिलेटम आदि समेत कई प्रजातियों के फूल पाए जाते हैं। यहां पहुंचने के लिए ऋषिकेश से गोविन्द घाट जो कि समुद्र तल से १८२९ मीटर की ऊंचाई पर है बस की सुविधा है। गॊविंद घाट से फूलों की घाटी तक १७ किमी का सफर पैदल ही तय करना पड़ता है। मजे की बात यह है कि फूलों की घाट के पास दो और बड़े तीर्थ ब्रदीनाथ धाम और हेमकुण्ड धाम हैं जहां हर साल हजारों श्रद्धालु आते हैं।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

रेलगाड़ियों का रोमांस

रस्किन बॉन्ड

‘रोमांस आया सवा नौ बजे,’ यह लिखा था रुडयार्ड किपलिंग ने, जिनकी कहानियां पहले-पहल भारतीय रेलवे लाइब्रेरी द्वारा प्रकाशित संग्रह में छपी थीं। जिसने भी उनका उपन्यास किम पढ़ा है, वह लंबी-लंबी ट्रेन यात्राओं का वर्णन कभी नहीं भूल सकता। किम और लामा ने लाहौर से बनारस के बीच ट्रेन से यात्रा की थी।

‘जैसे ही 3.25 साउथ बाउंड चिंघाड़ती हुई स्टेशन में दाखिल हुई तो सोने वाले हरकत में आ गए। स्टेशन चारों ओर चिल्ल पों, आवाजों, पानी और मिठाई बेचने वालों के शोर, पुलिस की झिड़कियों और अपना बोरिया-बिस्तर उठाए, परिवार को संभालती औरतों और उनके पतियों की चें-चें, पें-पें से गुलजार हो उठा।

हिंदुस्तान के भीड़भाड़ भरे रेलवे प्लेटफॉर्म का दृश्य आज भी कमोबेश वैसा ही है। सिर्फ भीड़ ज्यादा बढ़ गई है। ट्रेनों में सफर करने वाले लोगांे की संख्या में सौगुने का इजाफा हो गया है और उतना ही इजाफा हुआ है ट्रेनों की संख्या में भी। आज एक दिन में 7,000 से भी ज्यादा ट्रेनें चलती हैं। वर्ष 1853 में हिंदुस्तान में पहली बार बंबई से ठाणो के बीच भाप के इंजन वाली रेल ने 34 किलोमीटर का सफर तय किया था। हर्षोल्लास करती भीड़, 21 तोपों की सलामी और बैंड की धुनों के बीच 14 डिब्बों के साथ इंजन धीमी गति के साथ रेलवे स्टेशन से बाहर निकला था।

इसके पचास साल बाद ही भारत में रेलवे लाइनों का जाल-सा बिछ गया, उत्तर दक्षिण से और पूरब पश्चिम से जुड़ गया। इससे लोगों को उनके देश की लंबाई, चौड़ाई और विविधता की पड़ताल करने का पहली बार मौका मिला। तब उन्हें यात्राओं से मोहब्बत हुई और यह सिलसिला आज तक चला आ रहा है।

आज देश का प्रत्येक रेलवे स्टेशन चाहे वह छोटा हो या बड़ा, विभिन्न वर्गो के लोगों से हमारा परिचय करवाता है : उत्तर के तीर्थस्थलों की यात्रा करने वाले दक्षिण भारतीय, दक्षिण के सुंदर मंदिरों की ओर प्रस्थान करने वाले उत्तर भारतीय, फूलमालाओं से लदे वीआईपी, अपने भक्तों और प्रशंसकों से घिरे गुरु या ‘भगवान’, हर एक इंच पर कब्जा जमाए बैठे बाराती-घराती, कस्बों की ओर जाते किसान, छुट्टियों में अपने घर जाते सेना के जवान।

मैं स्वीकार करता हूं कि रेलवे प्लेटफॉर्म मेरी कमजोरी रहे हैं। कई बार मैं केवल इसीलिए प्लेटफॉर्म टिकट ले लेता हूं ताकि मैं एक-दो घंटे प्लेटफॉर्म की बेंच पर बिता सकूं। मैं वहां आने-जाने वाली रेलगाड़ियों को निहारता रहता हूं। इधर-उधर होने वाले यात्रियों, व्यापार करने वाले हॉकरों, यात्रियों से बहस करते कुलियों, सामान गंवाने वाले यात्रियों और अपना आपा खोने वाले स्टेशन मास्टर को देखता हूं। मुझे लगता है कि स्टेशनों और स्टेशन मास्टरांे को लेकर मेरे मन में पूरी सहानुभूति रही है। इसकी एक वजह शायद यह हो सकती है कि 1920 के दशक में मेरे नानाजी सेंट्रल रेलवे में स्टेशन मास्टर थे। मेरे खून में उसका थोड़ा-सा असर तो रहेगा ही।

एक कथा लेखक होने के नाते मुझे प्लेटफॉर्म पर फुर्सत के क्षण बिताने के दौरान अक्सर उस समय अपनी कहानी के सूत्र मिल जाते हैं। मार्क ट्वेन ने अपनी किताब इन ए ट्रैम्प अब्रॉड में इसे ‘भारतीय रेलवे स्टेशनों का निरंतर मोहक और शानदार तमाशा कहा है।’ भारत के बारे में अक्सर कहा जाता है कि यहां अनेक जातियां और धर्म परस्पर घुल-मिल जाते हैं, लेकिन ऐसा मानना गलत है। यह वास्तव में लोगों का ऐसा ‘मोजेक’ है, जिसे रेलगाड़ी से देखना सबसे बेहतर है, जो बिखरे हुए टुकड़ों को जोड़ देती हैं।

रेलवे बुकस्टॉल भी मुझे आकषिर्त करते हैं। ये पन्ने उलट-पुलट करने के अच्छे स्थान होते हैं और मैं हमेशा वहां से कुछ न कुछ जरूर खरीदता हूं, फिर भले ही वह पिछले महीने की ज्योतिषीय मार्गदर्शिका ही क्यों न हो। ज्योतिष संबंधी ये किताबें कई बार रेलवे टाइम टेबल के बाजू में रखी होती हैं। दोनों की सलाह से अपना रेलवे टिकट खरीदिए! कुछ यात्री ऐसे होते हैं, अपनी पीठ पर बैग लटकाए यात्रा पर निकल पड़ते हैं। ये दूसरे दर्जे के डिब्बों में यात्रा करते हैं ताकि वे अधिक से अधिक सहयात्रियों से मिल सकें।

बिल इनमें से ही एक है, जो रेलगाड़ी से भारत की लंबाई-चौड़ाई को नाप चुका है। उसने अपनी सीट कभी हुक्का पीने वाले किसान के साथ साझा की है तो कभी केसरिया वस्त्र लपेटे भिक्षु के साथ। उसके बारे में जब अंतिम बार मुझे पता चला, तब वह दक्षिण भारत के किसी शहर डिंडीगुल में था। उसने भारत के सभी 7,000 रेलवे स्टेशनों से गुजरने का संकल्प लिया है।

निचले हिमालय में कांगड़ा घाटी रेलवे से की गई यात्रा मेरी पसंदीदा रेल यात्राओं में से एक है। खासकर यह रेल लाइन इस बात का सबूत है कि रेलवे इंजीनियर प्राकृतिक सुंदरता के साथ तालमेल बिठाकर भी कोई कार्य कर सकते हैं। पहाड़ियों व घाटियों की शोभा व भव्यता के साथ छेड़खानी किए बगैर रेलवे इंजीनियरों ने इस तरह से रेल लाइन बिछाई कि यात्रियों को इस बेहद मंत्रमुग्ध करने वाले क्षेत्र के दर्शन हो सकें।

पटरियों के मोहक मोड़ों, पुलों के सुडौल ढांचों और पहाड़ों की सीधी कटाई से इस क्षेत्र की कठोरता से राहत मिली है। इस लाइन से गुजरना लुकाछिपी के समान एहसास देता है। 1920 के दशक में कांगड़ा रेलवे के इंजीनियरों ने रेलवे लाइन की राह में आने वाली पहाड़ियों की अंधाधुंध खुदाई को बड़ी ही कुशलता के साथ टाला। इस लाइन पर एक भी सुरंग नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि दिल से ताओवादी इंजीनियरों ने प्रकृति के खिलाफ चलने के बजाय उसके साथ चलना स्वीकार किया।

इसके उलट शिमला को देखिए। यदि आप शिमला जाने वाली ट्रेन में बैठते हैं तो आपका आधा सफर धरती की अंतड़ियों से गुजरते हुए ही बीतेगा, जगह-जगह सुरंग ही सुरंग। आपको सौ से अधिक सुरंगें मिलेंगी। इसका मतलब यह नहीं है कि शिमला भ्रमण से मुझे आपत्ति होती है। अपने स्कूली दिनों में मैं इस हिल स्टेशन पर 103 सुरंगों से होते हुए आता था। रास्ते में ट्रेन एक बहुत छोटे से स्टेशन पर रुका करती थी। उस स्टेशन का नाम बड़ोग था, जहां हमेशा बहुत ही शानदार नाश्ता दिया जाता था। दिसंबर के महीने में हम बड़ोग में अमरबेल के गुच्छे खरीदते थे। बड़ोग अमरबेल के लिए काफी प्रसिद्ध था।

मुझे नॉस्टेल्जिया का शिकार नहीं होना चाहिए। यह सच है कि भाप के इंजिन के साथ यात्रा करने का रोमांच कुछ अलग ही था, लेकिन लंबी और अंधेरी सुरंगों में कतई नहीं।

लेखक पद्मश्री विजेता ब्रिटिश मूल के भारतीय साहित्यकार हैं।

रविवार, 6 दिसंबर 2009

टिहरी के कुछ और भी हैं मायने

यह संदेश टिहरी : न जीवन, न लहर कॊ पढने के बाद नेमिष हेमंत ने भेजा है। टिहरी कॊ लेकर नेमिष का अपना नजरिया है और विकास कॊ लेकर अपने तर्क। लेकिन हमारा मानना है कि विकास के सपनॊं कॊ सिर्फ सरकारी चश्मे से तॊ नहीं देखा जाना चाहिए। टिहरी का दर्द सिर्फ एक शहर के डूबने की पीडा नहीं है। टिहरी के साथ हमारा इतिहास वर्तमान और भविष्य भी डूबा है।


मैं बहुत कुछ टिहरी बांध के विषय में नहीं जानता। केवल कुछ सुनता आया हूं। आगे मैं जो कहने जा रहा हूं। शायद उसे पढ़कर लोग यह भी कहे कि विस्थापित नहीं हो। तो ऐसी बातें निकल रही है। पर, मेरा मानना है कि टिहरी को लेकर इतनी हाय-तौब्बा मचाने की जरूरत भी नहीं है। आखिरकार विकास चाहिए तो कुछ कुर्बानी देने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। छोटी सी ही चीज।

गांवों में संपर्क मार्ग बनता है तो कईयों की जमीन, कइयों के मकान उसकी जद में आ जाते हैं। तो क्या सड़क न बने। यह कहते हुए इसका काम रोक देना चाहिए कि विस्थापन किसी भी कीमत पर नहीं होगा। कृषि योग्य भूमि है, इसलिए हम इसे नहीं देंगे। तो फिर हो चूका विकास। वहीं हुआ। विकास नहीं। तो सवाल। हैं तो सवाल। कहां तक जायज है। मुङो नहीं लगता कि टिहरी बांध को लेकर इतना छाती पीटने वालो को विकास के नाम पर सरकार को कटघरें में खड़ा करने का अधिकार है।

फिर यहां तो सवाल इक बांध का है। जिससे बिजली के साथ सिंचाई और पीने के पानी का मिलता है। कहीं-कहीं यह बाढ़ को रोकने तथा सुखा दूर करने में सहायक होता है। अगर सवाल खड़ा करना ही है तो उस सरकारी तंत्र पर करना चाहिए। जिसने पुर्नवास कायदे से न किया हो। बांध से लाभ न मिला हो। रोजगार न मिला हो।

इसका नहीं कि बांध में फला शहर डुब गया। उसके अवशेष दिखाई पड़ रहे है किसी कंकाल की तरह। लिखा तो काफी अच्छा गया। खासकर हिंदी शब्दों का जादूई प्रयोग हुआ है। किसी पटकथा की तरह। मुङो लगता है कि इन सभी संकलनों को पुस्तक का आकार देना चाहिए। फिर कहूंगा। लिखते समय सोचना चाहिए था कि मुद्दा क्या है। भोपाल का गैस त्रासदी कांड या मुबंई का आतंकवादी हमला नहीं है। जहां सरकार की नाकामी, अर्कमण्यता से ऐसी स्थिति पैदा हुई है। या फिर नंदीग्राम नहीं। जहां के भौतिक संसाधनों पर बहुत कुछ टाटा का नैनों कार निर्भर नहीं था।

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

हिंदुस्तान में हैलॊ हिमालय


पहाड के बारे में हमारे प्रयास कॊ हिंदुस्तान अखबार ने संपादकीय पृष्ठ पर ब्लाग वार्ता में जगह दी है। यह हैलॊ हिमालय के लिए सम्मान की बात है। हमारी कॊशिश है कि लगातार पहाड से जुडे मामलॊं कॊ नए-नए रूप में आप लॊगॊं के सामने पेश करें। हमारी यह कॊशिश आगे भी जारी रहेगी। रवीश जी कॊ विशेष रूप से धन्यवाद, जिन्हॊंने अपने हैलॊ हिमालय के बारे में पूरी संवेदना के साथ लिखा है।

लक्ष्मी प्रसाद पंत

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

बर्फ की चादर पर विकास की कालिख

देवेन्द्र शर्मा

पर्यावरण और वन मंत्री जयराम रमेश द्वारा जारी की गई रिपोर्ट हिमालयन ग्लेशियर्स के अनुसार इस बात का कोई पुख्ता साक्ष्य नहीं है कि जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय में ग्लेशियर पिघल रहे हैं। इस अध्ययन की कोई जिम्मेदारी न लेते हुए जयराम रमेश ने बड़ी तत्परता से इसमें जोड़ा कि इसका मतलब इस विषय पर चर्चा को आगे बढ़ाना था। मुझे इस चर्चा को आगे बढ़ाने में कोई तुक नजर नहीं आता, जबकि इंटरनेशनल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) पहले ही स्वीकार कर चुकी है कि ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं।

मुझे हैरानी नहीं होगी अगर बाद में यह पता चले कि यह नदियों को जोड़ने के लिए माहौल बनाने का प्रयास था। आखिरकार, इस संभाव्य परियोजना पर अरबों डालर का दारोमदार है और लाबी अभी भी काम में जुटी है। हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियरों के पिघलने के पुख्ता साक्ष्य न होने के पीछे सीधा सा कारण यह है कि भारत सरकार ने इंटरनेशनल सेंटर फार माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईओडी) और युनाइटेड नेशंस एनवार्यनमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) की हिमालयी ग्लेशियरों के विस्तृत अध्ययन की मांग बार-बार अस्वीकार की है। भारत सरकार ग्लेशियरों के अध्ययन के पीछे केवल रक्षा उद्देश्य देखती है। यह ग्लेशियरों के पिघलने और नई निर्मित झीलों के बनने के भारी खतरों से आंखें मूंदे बैठी है। शायद खतरे को स्वीकार करने से पहले भारत किसी बड़े विनाश का इंतजार कर रहा है। जयराम रमेश को यह समझना चाहिए कि हिमालय ग्लेशियर को बचाने के लिए कुछ सार्थक कदम उठाने से ध्यान भटकाना देश के पर्यावरण और खाद्य सुरक्षा को खतरे में डालना है। मैं आपका ध्यान हिमालय में प्रतीक्षारत विनाश की ओर खींचना चाहता हूं। यह कुछ समय पहले आईसीआईएमओडी द्वारा तैयार की गई विस्तृत रिपोर्ट पर आधारित है।

4 अगस्त, 1985 को माउंट एवरेस्ट चोटी के निकट समुद्र तल से करीब 4,385 मीटर ऊंचाई पर स्थित ग्लेशियर से बनी दिग त्शो झील अचानक फट गई। अगले चार घंटों में झील से 80 लाख घन मीटर पानी बह निकला। तेजी से बहती जलधारा के रास्ते में जो भी आया, उसने बर्बाद कर दिया। अगले कुछ घंटों में ही जल प्रवाह में एक छोटे बांध नामचे स्माल हायडल प्रोजेक्ट का ढांचा, 14 पुल, सड़कें, खेती-बाड़ी और बड़ी संख्या में मानव और पशु बह गए। दिग त्शो झील अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल और भूटान में फैली हिंदू-कुश हिमालयन पर्वत श्रृंखला पर ग्लेशियर से बनी एकमात्र झील नहीं है। तापमान में वृद्धि होने के साथ-साथ ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिससे विशाल झीलें बन रही हैं। वैसे तो इस क्षेत्र में ग्लेशियरों की सही संख्या का पता नहीं है, फिर भी आईसीआईएमओडी ने नेपाल के 5324 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 3,252 ग्लेशियरों की घोषणा की है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि ग्लेशियर पिघलने से बनने वाली झीलों की संख्या 2,323 है। माना जाता है कि इनमें से अधिकांश पिछले पचास वर्र्षो के दौरान बनी हैं। आईसीआईएमओडी ने 20 झीलों को खतरनाक बताया है, इनमें से 17 झीलों का पहले कभी टूटने का इतिहास नहीं रहा है। ये झीले सुदूर क्षेत्रों और ऊंचे पहाड़ों पर बनी हैं, किंतु इनसे होने वाला महाविनाश स्थानीय नागरिक बस्तियों और देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। उदाहरण के लिए त्शो रोल्फा झील को ही लें। दोलाखा जिले की रोलवालिंग घाटी में बनी यह झील काठमांडू से महज 110 किलोमीटर दूर है। इस झील का पानी दिनोदिन बढ़ रहा है। 1959 में यह झील .23 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली थी, जबकि 1990 में यह क्षेत्र बढ़कर 1.55 वर्ग किलोमीटर हो गया। जिस क्षेत्र में यह झील बनी है वह बराबर कमजोर हो रहा है। शोधकर्ता इसे खतरनाक घोषित कर चुके हैं। केवल हिमालय में ही नहीं, पूरे विश्व में ग्लेशियर तेजी के साथ पिघल रहे हैं। पूर्वी अफ्रीका के माउंट क्लिमंजारो पर 2015 तक बर्फ खत्म होने की आशंका है।

1912 से 2000 के बीच इस पर बर्फ की चादर 82 प्रतिशत छोटी हो गई है। 1850 से अल्पाइन ग्लेशियर क्षेत्रफल में 40 प्रतिशत और घनत्व में 50 प्रतिशत पिघल चुके हैं। 1963 से पेरू में ग्लेशियर 155 मीटर प्रतिवर्ष की दर से सिमट रहे हैं। हिमालय के ग्लेशियर बेहद संवेदनशील माने जाते हैं। अपेक्षाकृत निचले भागों में इन ग्लेशियरों पर मानसून के दौरान बर्फ जमती है और गरमियों में पिघलती है। ऊंचे पहाड़ों पर स्थित ग्लेशियरों पर सर्दियों में बर्फ जमती है जबकि गरमियों में पिघलती है। यूएनईपी का अनुमान है कि झीलों का फटना एक बड़ी समस्या बनने जा रही है, खासतौर से दक्षिण अमेरिका, भारत और चीन में। किंतु दुर्भाग्यवश भारत और चीन दोनों देशों ने ग्लेशियरों का इस्तेमाल महज सुरक्षा की दृष्टि से किया है। इन दोनों देशों में बर्फ से ढके अधिकांश इलाके सेना के कब्जे में हैं। सीमा के करीब होने के कारण ये सुरक्षा की दृष्टि से महत्वूपर्ण हैं और इन्हें भीतरी नियंत्रण रेखा कहा जाता है। इन क्षेत्रों में वैज्ञानिक शोध और जनता के आवागमन की अनुमति नहीं है। दोनों विशाल देशों पर अंतरराष्ट्रीय दबाव पड़ रहा है कि वैज्ञानिकों को शोध करने दिया जाए और इन्हें बचाने के लिए उपयुक्त उपाय किए जाएं ताकि यह भीतरी नियंत्रण रेखा अनियंत्रित न हो जाए। जबकि विश्व वैश्विक ताप के ग्लेशियरों पर पड़ने वाले खतरनाक प्रभावों पर बहस जारी रखे हुए है, नेपाल के राजा नीदरलैंड-नेपाल फ्रेंडशिप एसोसिएशन के तत्वावधान में पूर्व चेतावनी तंत्र विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। साथ ही इसके दुष्प्रभावों को कम करने के प्रयास भी कर रहे हैं। इनमें झीलों में पानी तीन मीटर कम करने के प्रयास भी शामिल हैं। यह जानते हुए कि इतना काफी नहीं है, दूसरे चरण में पानी 17 मीटर घटाने की कोशिश की जाएगी। यह अपने आप में उल्लेखनीय पहल है। इसे अन्य देशों में भी लागू करने की जरूरत है, जहां बर्फ तेजी से पिघल रही है पर इसके दुष्प्रभावों को लेकर समझ विकसित नहीं हो रही है। 20 खतरनाक झीलों में से तीन- नगमा, ताम पोखरी और दिग त्शो के टूटने का इतिहास रहा है। इसके अलावा ग्लेशियर से बनी छह अन्य झीलों के बारे में भी आईसीआईएमओडी का मानना है कि अतीत में इनके टूटने से वर्तमान में खतरा नजर नहीं आता। शोधकर्ताओं की राय है कि ग्लेशियरों से बनी झीलों को टूटने से बचाने के लिए इनकी सतत निगरानी और पूर्व चेतावनी तंत्र जरूरी हैं।

सबसे महत्वपूर्ण है बर्फ को पिघलने से बचाकर झीलों में पानी की मात्रा घटाना। मानव और जीव-जंतुओं को बचाने तथा ढांचागत सुविधाओं व संपत्ति का नुकसान रोकने के लिए बहुत सावधानी से योजनाएं बनाने और संबंधित एजेंसियों के साथ मिलकर काम करने की जरूरत है। इससे भी जरूरी है आपदा बचाव नीतियां और गतिविधियां लागू की जाएं। पहाड़ों को संभावित ग्रहण से बचाने के लिए जोरदार वैश्विक कार्यक्रम की तुरंत आवश्यकता है। पर्वतीय क्षेत्रों में पहले ही बेपनाह गरीबी फैली हुई है और साथ ही इस नाजुक प्राकृतिक प्रवास पर विनाश का साया मंडरा रहा है। जलवायु परिवर्तन के गंभीर और वास्तविक खतरे की अनदेखी निश्चित तौर पर और अधिक विनाशकारी होगी।

विस्फॊट डाट काम से साभार

बुधवार, 18 नवंबर 2009

बुधवार, 11 नवंबर 2009

टिहरी : न जीवन, न लहर


अपनी डायरी के पन्नों में भावनाओं का यह बांध मैंने वर्ष 1999 से लेकर 2004 के बीच उस दौरान बांधा था, जब मैं डूबते-मरते शहर की रिपोर्टिंग करने के लिए टिहरी गया था। इस एतिहासिक शहर के डूबने की यह पीड़ा मुझे आज भी उतना ही बैचेन और विचलित करती है, जितनी तब जब टिहरी डूबने की प्रक्रिया से गुजर रहा था। खबर लिखते वक्त कई बार हाथ भी कांपे थे। जल समाधि ले रहे टिहरी कॊ देखकर मेरे मन में तब क्या उथल पुथल मची थी, इसका एक हिस्सा यहां प्रकाशित कर रहा हूं-एल.पी.पंत


4
टिहरी मेरे सिरहाने तक चला आया है। यहां कुछ दिन और रूका तो या तो आत्महत्या कर लूंगा या पागल हो जाऊंगा। यहां न जीवन है, न लहर है और न ही उछाल। मरघट सा शहर सब कुछ ठंडा। यह इतिहास की लहुलुहान रणभूमि है। रात का एक पहर बीत चुका है। एतिहासिक इमारतों की कब्र पर खड़ा बांध ठहाके लगा रहा है।

एल.पी.पंत
2 oct 2002


5
हम सबने जिंदगी में बहुत कुछ नष्ट होते देखा है पर इस शहर के नष्ट होने की पीड़ा कुछ ओर ही है। प्रकृति और जीवन का अस्तित्व तकनीक के आगे यहां बहुत छोटा महसूस हो रहा है। धूप कुछ और ढल चुकी है। डूबता सूरज बहुत अकेला और उदास नजर आ रहा है। अपनी लाशनुमा जिंदगी से तंग आकर टिहरी अब अपनी जिंदगी खुद खत्म करने की आजादी चाहता है।

एल.पी.पंत
8 nov 2003

6
रात होने को है। बांध की छायाएं और लंबी होकर सोने जा रही हैं। पूरी तरह टूट चुके एक मकान की खिड़क खुली है। पास ही एक बच्ची मलबे को आकार देने में जुटी है। हर बार मलबा खिसककर नीचे आ गिरता है। बच्ची हिम्मत नहीं हार रही है। नीड़ के निर्माण में लगातार जुटी है। बांध बनाने वाले बच्ची से बचकर गुजरते हैं। जैसे किसी दुर्गन्ध के पासे से हम नाक में रूमाल दिए तेजी से आगे बढ़ जाते हैं। पास ही एक मां अपने अजन्मे बच्चे को टिहरी से आखिरी खत लिख रही है।

एल.पी.पंत
13 apr 2004

7
टिहरी में पसरे सुन्न सन्नाटे में मैं अपनी सांसों को सुन सकता हूं। इंसान के नाम पर सिर्फ अपनी छाया दिखाई देती है। चोंच में सपनों को समेटकर चिड़ियों का झुंड शहर छोड़कर जा रहा है। रात होने लगी है। अंधेरे में बाहर कुछ दिखता तो नहीं, गूंजती बस एक आवाज- मैं डूब गया, मैं डूब गया। सन्नाटे के बिस्तर पर रात सिसक रही है।

एल.पी.पंत
8 aug 2004

8
टिहरी विस्थापित एकदम नए बने मकानों में बस चुके हैं। यहीं की छतें नहीं टपकतीं। दीवारों पर सीलन भी नहीं है। दरवाजे-खिड़कियां एकदम चकाचक। पर इस नई टिहरी में पुराने जैसा कुछ भी नहीं है। यह वर्तमान इतिहास की कोख से नहीं बल्कि इतिहास के शव पर उपजा है।

एल.पी.पंत
14 sep 2004

पहली 3 कड़ियां पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
चिड़ियों की चीखें
भावनाओं का बांध
एक था टिहरी

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

खुशी तितली की तरह


रस्किन बॉण्ड

खुशी उतनी ही दुर्लभ है, जितनी कि तितली। हमेशा खुशी के पीछे-पीछे नहीं भागना चाहिए। अगर आप शांत, स्थिर बैठे रहेंगे तो हो सकता है कि वह आपके पास आए और चुपचाप आपकी हथेलियों पर बैठ जाए। लेकिन सिर्फ थोड़े समय के लिए। उन छोटे-छोटे कीमती लम्हों को बचाकर रखना चाहिए क्योंकि वे बार-बार लौटकर नहीं आते।

कोयल पेड़ की चोटी पर बैठकर आवाज लगाती है। एक और गर्मियां आईं और चली गईं। यह मेरे जीवन की पचहत्तरवीं गर्मियां हैं, जो गुजर गईं। यद्यपि मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि पहली पांच गर्मियों के बारे में मुझे ठीक-ठीक कुछ भी याद नहीं है। शुरू-शुरू में जामनगर की एक गर्मी की मुझे याद है। समंदर में पैडल मारते हुए छोटी सी स्टीमर के बाहर देखना।

पूरे कच्छ की खाड़ी में दूर-दूर तक फैलती हुई निगाहें। देहरादून मंे अप्रैल की एक सुबह, आम की खुशबू से भरी बिखरी हुई हवाएं, नई दिल्ली की लंबी, भीषण तपती हुई गर्मियां, खसखस के पर्दे पर पानी डालता हुआ भिश्ती (उन दिनों एयरकंडीशन नहीं हुआ करते थे)। शिमला में गर्मियों से भरा एक दिन, शिमला में ही गर्मियों में पिता के साथ आइसक्रीम खाना। ये सब उन गर्मियों की बातें हैं, जब मेरी उम्र दस साल से कम थी।

मई की एक अलसुबह मेरा जन्म हुआ था। भरी गर्मियों में ही मेरे पैदा होने की भविष्यवाणी थी। सूर्य के जैसा और कुछ भी नहीं है। मैदानी इलाकों में घने छायादार पीपल या बरगद के तले बैठे हुए आप सूरज के और मुरीद हो जाते हैं। पहाड़ों में सूरज आपको अपने ठंडे कमरे से बाहर निकाल लाता है ताकि आप उसकी भव्यता में चहलकदमी कर सकें। बागों को सूरज की रोशनी चाहिए और मुझे चाहिए फूल।

इसलिए हम दोनों ही साथ-साथ सूरज का पीछा करते हैं। इस पृथ्वी ग्रह पर अपने ७५ वर्षो के जीवन में मैंने क्या सीखा? बिलकुल ईमानदारी से कहूं तो बहुत थोड़ा। बड़ों और दार्शनिकों पर भरोसा मत करो। प्रज्ञा उम्र के साथ नहीं आती है। यह आपके साथ ही पैदा होती है। या तो आपके पास प्रज्ञा होती है या नहीं होती है। ज्यादातर समय मैंने बुद्धि की जगह हमेशा अपने मन, अपने संवेगों की आवाज सुनी है और इसकी परिणति हुई है खुशी में।

खुशी उतनी ही दुर्लभ है, जितनी कि तितली। हमेशा खुशी के पीछे-पीछे नहीं भागना चाहिए। अगर आप शांत, स्थिर बैठे रहेंगे तो हो सकता है कि वह आपके पास आए और आपकी हथेलियों पर बैठ जाए। लेकिन सिर्फ थोड़े समय के लिए। उन छोटे-छोटे कीमती लम्हों को बचाकर रखना चाहिए क्योंकि वे बार-बार लौटकर नहीं आते।

एक शांतचित्तता और स्थिरता हासिल करना कहीं ज्यादा आसान होता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण वह बिल्ली है, जो हर दोपहरी को सूरज की रोशनी में आराम फरमाने के लिए बालकनी में आकर बैठ जाती है और फिर कुछ घंटे ऊंघती रहती है। एक व्यस्तता भरी सुबह की थकान और तनाव से राहत देने के लिए दोपहर की थोड़ी सुस्ताहट और आराम से बेहतर और कुछ नहीं है।

जैसा कि गारफील्ड कहते हैं : कुछ इसे आलस कहते हैं, मैं इसे गहन चिंतन कहता हूं। किसी धार्मिक आसरे के बगैर जीवन के इस मोड़ पर पहुंचकर मेरे पास उन सब चीजों के बारे में कहने को कुछ है, जो मेरे जीवन में खुशी और स्थिरता लेकर आईं। बेशक किताबें। मैं इन किताबों के बिना जिंदा ही नहीं रह सकता। यहां पहाड़ों पर रहना, जहां हवा साफ और नुकीली है। यहां आप अपनी खिड़की से बाहर नजरें उठाकर उगते और ढलते हुए सूरज के बीच पहाड़ों को अपना माथा ऊंचा उठाए देख सकते हैं।

सुबह सूरज का उगना, दिन का गुजरना और फिर सूरज का ढल जाना। सब बिलकुल अलग होता है। गोधूली, शाम और फिर रात का उतरना। सब एकदम जुदा-जुदा। हमारे चारों ओर ये जो कुछ भी फैला हुआ है, उसके बारीक, गहरे फर्क को हमें समझना चाहिए क्योंकि हम यहां जिंदगी से प्रेम करने, उसे गुनने-बुनने के लिए हैं। किसी दफ्तर के अंदर बैठकर पैसे कमाने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन कभी-कभी अपनी खिड़की से बाहर देखना चाहिए और देखना चाहिए बाहर बदलती हुई उन रोशनियों की तरफ। ‘रात की हजार आंखें होती हैं और दिन की सिर्फ एक।’ लेकिन लाखों लोगों की जिंदगियों में रोशनी बिखेरने वाला वही चमचमाता हुआ सूरज है।

खुशी का रिश्ता मनुष्य के स्वभाव और संवेगों से भी होता है और स्वभाव एक ऐसी चीज है, जिसके साथ आप पैदा होते हैं, जिसे हमने अपने नजदीक या दूर के पुरखों से पाया होता है और प्राय: हम उनके सबसे खराब जीन को ही अपनी जिंदगी में ढोते हैं : चिड़चिड़ा स्वभाव, अनियंत्रित अहंकार, ईष्र्या, जलन, जो अपना नहीं है उसे हड़प लेने की प्रवृत्ति।

‘प्रिय ब्रूटस, गलतियां हमारे सितारों में नहीं होती हैं। वह हममें ही होती हैं, हमारे भीतर ही छिपी होती हैं..’शेक्सपियर प्राय: इस ओर इशारा करते हैं।

और भाग्य? क्या भाग्य जैसी कोई चीज होती है? लगता है कि कुछ लोगों के पास दुनिया का सारा सौभाग्य है। या यह भी आपके स्वभाव और संवेगों से जुड़ी बात ही है? जो स्वभाव ऐसा है कि खुशी के पीछे भागता नहीं फिरता है, उसे ढेर सारी खुशी मिल जाती है। नर्म, संतोषी और कोई अपेक्षा न करने वाले स्वभाव को तकलीफ नहीं होती। वहीं दूसरी ओर जो अधीर, महत्वाकांक्षी और ताकत की चाह रखने वाले हैं, वे कुंठित होते हैं। भाग्य उन लोगों के साथ-साथ चलता है, जिनका मन थोड़ा स्वस्थ होता है और जो रोजमर्रा की जिंदगी के संघर्ष से टूट-बिखर नहीं जाते, जिनमें उसका सामना करने की हिम्मत होती है।

मैं बहुत ज्यादा किस्मतवाला हूं। तकदीर का धनी रहा हूं मैं। मुझे सभी भगवानों का पूरा आशीर्वाद मिला है। मैं किसी खास गहरी निराशा, अवसाद और दुख के बगैर ही पचहत्तर साल की इस बूढ़ी और प्रौढ़ अवस्था तक आ चुका हूं। मैंने सीधा-सादा, साधारण और ईमानदार जीवन जिया है। मैंने वे काम किए, जिसमें मुझे सबसे ज्यादा आनंद आता था। मैंने शब्दों को आपस में जोड़-जोड़कर कहानियां गढ़ी और सुनाईं। मैं जिंदगी में ऐसे लोगों को पाने में सफल रहा, जिनसे मैं प्रेम कर सकता और जिनके लिए जी सकता।

क्या यह सब बस यूं ही अचानक हो गया? सब सिर्फ अचानक ही घट गई किस्मत की बात थी या सबकुछ पहले से ही नियत और तयशुदा था या फिर यह मेरे स्वभाव में ही था कि मैं किसी दुख, घाव या चोट के बिना अपनी जिंदगी की यात्रा में इस आखिरी पड़ाव तक पहुंच पाया?

मैं इस जिंदगी को गहरी भावना, आवेग और शिद्दत से भरकर प्यार करता हूं और मेरी तमन्ना है कि यह जिंदगी बस ऐसे ही चलती रहे, चलती रहे। लेकिन हर अच्छी चीज का कभी न कभी अंत तो होता ही है। एक दिन वह अपने अंत के निकट जरूर पहुंचती है। और आखिर में एक दिन जब मेरी रुखसती का, मेरी विदाई का वक्त आए तो मैं उम्मीद करता हूं कि पूरी गरिमा, सुख और खुशी के साथ मैं इस दुनिया से रुखसत हो सकूं।

बुधवार, 28 अक्टूबर 2009

चिड़ियों की चीखें

अपनी डायरी के पन्नों में भावनाओं का यह बांध मैंने वर्ष 1999 से लेकर 2004 के बीच उस दौरान बांधा था, जब मैं डूबते-मरते शहर की रिपोर्टिंग करने के लिए टिहरी गया था। इस एतिहासिक शहर के डूबने की यह पीड़ा मुझे आज भी उतना ही बैचेन और विचलित करती है, जितनी तब जब टिहरी डूबने की प्रक्रिया से गुजर रहा था। खबर लिखते वक्त कई बार हाथ भी कांपे थे। जल समाधि ले रहे टिहरी कॊ देखकर मेरे मन में तब क्या उथल पुथल मची थी, इसका एक हिस्सा यहां प्रकाशित कर रहा हूं- एल पी पंत
3 ढलती दोपहरी का समय है। डूबने के इंतजार में उंघता शहर धीरे-धीरे अवसाद की मांद में लुढ़क रहा है। एक ठहरी नदी के किनारे टिहरी चुपचाप बैठा है। अंधेरा घिरते ही बांध की परछाई शहर को अपने घेरे में ले लेती है। आधे टूटे मकान और कंकालनुमा घरों में जड़ी सूनी आंखों से खिड़कियां विकास की दास्तां बयां कर रही हैं। अचानक टिहरी की धरती चीखने लगती है। पूछती है-क्या विकास इसी का नाम है, शहर कुचल दिए जाएं मस्त हाथी की तरह। सुबह होने को है। चिड़ियों की चहचहाहट भी मातमी चीखों सी कानों में चुभ रही हैं।

एल पी पन्त
टिहरी
13 अगस्त 2002
पहली दो कड़ियां पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
भावनाओं का बांध
एक था टिहरी

सोमवार, 26 अक्टूबर 2009

भावनाओं का बांध


दो
टिहरी किसी चुप्पी की गिरफ्त में है। विकास का जहर धीरे-धीरे घुल रहा है। सबकुछ गुपचुप हो रहा है नींद में चलने की तरह। जो शहर रात को भी नहीं सोता था, आज चिरनिद्रा में है। नहीं है यहां कोई जल्दी या हड़बड़ी। जैसे किसी को कहीं जाना ही नहीं, लौटना ही नहीं। दर्द और तनाव की गांठें-गांठें धीरे-धीरे खुल रही हैं।

-एल पी पंत
टिहरी
27. जून 1999

टिहरी बांध से जुड़े संस्मरण का पहला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें-
एक था टिहरी

शनिवार, 24 अक्टूबर 2009

एक था टिहरी


1
टिहरी चुप है पर एकदम मौन नहीं। झींगरों की झनझनाती आवाजें, घास और पत्तों की सरसराहट, भूली बिसरी समृति का अकेलापन और एक निश्चित अंतराल के बाद हिलोरे मारती भागीरथी की आवाज यहां अब भी मौजूद है। टिहरी चुप है पर बिलकुल मौन नहीं। मन की तरह।

टिहरी , 22.feb.1999

एवरेस्ट जीता, अपनों से हारा

मौत से लड रहा है देश का जांबाज
पर्वतारोही मगन बिस्सा ने भले ही माउंट एवरेस्ट को बड़ी आसानी से फतह कर लिया हो, लेकिन आज वह दिल्ली के एक अस्पताल में जिंदगी और मौत के बीच जूझ रहा है। यह वही मगन बिस्सा हैं, जिन्होंने तीन बार एवरेस्ट को फतह कर राजस्थान का नाम रोशन तो किया ही, इस बार भी अगर हादसा न हुआ होता तो वह एवरेस्ट को फतह करने वाले दुनिया के पहले दंपती होते। दुख की बात ये है कि मगन बिस्सा को न ही राज्य सरकार, न ही केंद्र सरकार कोई सुविधा मुहैया करा रही है। इंस्टीट्यूट ऑफ लीवर एंड बाइनरी साइंस में भर्ती मगन एवरेस्ट के नजदीक सात मई को बर्फीले तूफान में फंसने के कारण घायल हो गए। इस दौरान उनकी पत्नी सुषमा बिस्सा भी उनके साथ थीं। मगन और सुषमा उत्तरकाशी स्थित नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग अभियान के सदस्य थे। हादसे के बाद मगन को हेलिकॉप्टर से लाकर काठमांडू के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया। बाद में उन्हें इलाज के लिए दिल्ली भेजा गया, जहां अभी भी उनकी हालत गंभीर बनी हुई है। अस्पताल के चिकित्सकों के मुताबिक अब तक बिस्सा की आंत के तीन बड़े ऑपरेशन हो चुके हैं और उसका 80 फीसदी हिस्सा गैंगरीन के चलते बाहर निकाला जा चुका है। यही नहीं, उनकी आंत से लीकेज भी हो रहा है।

मगन के इलाज पर रोजाना 20 से 25 हजार रुपए खर्च हो रहे हैं। आर्थिक तंगी का आलम यह है कि उनके इलाज के लिए लोन लेना पड़ रहा है। मगन की पत्नी सुषमा बिस्सा ने बताया कि इलाज के लिए आर्थिक मदद के लिए यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत तक को पत्र लिखा गया, लेकिन कहीं से कोई पहल नहीं हुई। बिस्सा सरकारी मदद के हकदार हैं और इसके लिए सरकार को खुद पहल करनी चाहिए। अगर ये हादसा न होता तो वे एवरेस्ट पर जाने वाले पहले दंपती होते। उनके दोस्तों और शुभचिंतकों ने मदद के लिए एक वेबसाइट शुरू की है। हेल्पमगन. ओआरजी नाम से शुरू इस वेबसाइट पर मदद के लिए लोग आगे भी आ रहे हैं।
मगन बिस्सा पहली बार उस समय सुर्खियों में आए थे, जब 1984 में बछेंद्री पाल के साथ एवरेस्ट पर तिरंगा फहराया था। बीकानेर में पले-बढ़े मगन को इसके लिए सेना मैडल से भी नवाजा जा चुका है। बिस्सा फिलहाल राजस्थान एडवेंचर फाउंडेशन के अध्यक्ष और नेशनल एडवेंचर फाउंडेशन (राजस्थान-गुजरात चेप्टर) के निदेशक हैं।

अगर आप मगन बिस्सा की मदद करना चाहते हैं तॊ उनकी पत्नी सुषमा से 09414139850 और आरके शर्मा 09414139950से पर संपर्क कर सकते है। अधिक जानकारी के लिए www.helpmagan.org कॊ भी देखें।

बुधवार, 14 अक्टूबर 2009

हि‍मालय क्‍यों डगमगा रहा है

उधर देखो, हि‍मालय क्‍यों डगमगा रहा है
ना कोई भूकंप आया है
ना कि‍सी तूफान में ताकत है
फि‍र क्‍या है
जो इस पहाड़ को हि‍ला रहा है
शायद यह नाराज है
हमने जो खून बहाया है
इसकी गोद में
आतंक का दामन छुपाया है
भारत को चीरा
और पाकि‍स्‍तान को बनाया है
खैर थी इतनी भी
पर हमने दुश्‍मनी को बढ़ाया है
यही वजह है शायद
आज हि‍मालय हि‍लता ही जा रहा है
पहले खीचं डाली सरहद
फि‍र आसमां को बाटां
मां की छाती से बच्‍चे को छीना
मजहब के नाम पर
यह क्‍या गुनाह कि‍या
रास ना आया तभी
अडि‍ग गि‍री डगमगा रहा है
सि‍यासत के गलि‍यारों से
गदंगी की बू आती है
जो अमन के बजाए
कारगि‍ल को लाती है
ना छुपने दो उन फरि‍श्‍तों को
ना झुकने दो उन अरमानों कों
जिन्होने दोस्‍ती का दि‍या जलाया है
वरना देख लो अभी से
हि‍मालय डगमगा रहा है
घर जले थे पंजाब में
तपि‍श है अभी उस आग में
देख लो चाहे तुम
महीने लग जाते हैं पहुचने में
अमृतसर और लाहौर के
चन्‍द लम्‍हों के फासले में
ना जाने हश्र क्‍या हो्गा
यह हि‍मालय हि‍लता ही जा रहा है
गलती जो कर दी थी कभी
ना दोहराओ तुम अभी
छा जाने दो खुशी
उन बुझे बुझे से चेहरों पर
जो दो ना पायें हैं जी भर
बि‍छड़े हैं जबसे दि‍ल जि‍गर
कैसे भूल जाते हो
दर्द धरती के स्‍वर्ग का
इंसान हैं वो
जीने का हक उन्हे भी दो
दोस्ती का पैगाम लाऔ
तोड़ डालो मुहं उस तीसरे का
जो हुंकारता है दूर से
और हमारे बीच टागं अड़ाता है
देर ना हो जाए कहीं
क्‍योंकि‍ हि‍मालय डगमगा रहा है
सब रास्‍ते खोल दो
मिटा दो सरहद की जंजीरों को
भारत-पाक चलो उस राह पर
जहां अमन नजर आता है
कहीं एसा ना हो जाए ‘ज़ालि‍म’
अपवादों की धरती पे
टूट जाए यह पहाड़
और मि‍टा दे सरहद सदा के लि‍ए
यह हो जाएगा
क्‍योंकि‍ हि‍मालय हि‍लता ही जा रहा है

हिमालय की बेबसी और उसके दर्द कॊ लेकर हर कॊई बेचैन है। आखिर हॊं भी क्यॊ न। क्यॊंकि अगर हिमालय है तॊ हम हैं। कवि सुनील डॊगरा जालिम की यह कविता सरहदॊं से निकलकर हिमालय के दर्द की दास्तां कुछ यूं बयां कर रही है।

मंगलवार, 13 अक्टूबर 2009

उस रात जब उड़ गया छप्पर

रस्किन बॉन्ड

यहां 7000 फीट की ऊंचाई पर हिमालय से घिरे पहाड़ों पर रहते हुए हमें अचानक उठने वाले तेज तूफानों की आदत पड़ गई है। इन तेज हवाओं के हम आदी हो चुके हैं। जिस पुरानी इमारत में मैं रहता हूं, वह लगभग सौ साल पुरानी है और यह इतने सालों से पहाड़ियों के इस इलाके में बहने वाले तेज तूफान और बारिश को देख रही है। फरवरी और मार्च का महीना तो सबसे खराब होता है।

यह एक तीन मंजिला इमारत है और हम सब यहां रहते हैं। हम यानी चार बच्चे और तीन वयस्क। हमारी ढलुआ छत ने जाने कितने तूफानों का मुकाबला किया है और बिल्कुल अडिग खड़ी रही है, लेकिन उस दिन वह हवा मानो तेज तूफानी हवा थी। उसकी गति और ताकत तूफान जैसी थी और वह बहुत तेजी के साथ चीखती-बिलखती बहती चली आई थी। पुरानी पड़ चुकी छत कराहने लगी, उसने हवा के खिलाफ बड़ा प्रतिरोध किया। जब तक हवा और छत के बीच गुत्थम-गुत्था चलती, कई घंटे गुजर गए।

अब बारिश की बौछारें खिड़की पर भी चाबुक फटकारने लगी थीं। बत्ती कभी आती थी, कभी जाती थी। अलाव बुझे काफी वक्त गुजर चुका था। चिमनी टूट गई थी और उससे होकर छत से बरसात का पानी घर में लगातार घुसा चला आ रहा था।
हवा से चार घंटे की लंबी लड़ाई के बाद आखिरकार छत ने हार मान ही ली। सबसे पहले घर में मेरे वाले हिस्से की छत उड़ गई। हवा छत के नीचे से घुसकर उसे धक्का देने लगी और तब तक देती रही, जब तक चीखती-कराहती बेचारी टीन की छत उखड़ नहीं गई। उनमें से कुछ तूफान की तरह कड़कड़ की आवाज करती दूसरी ओर सड़क पर जा गिरीं।

जो होना था सो हो गया। मैंने सोचा कि अब इससे ज्यादा बुरा कुछ नहीं हो सकता। जब तक ये सीलिंग बची हुई है, मैं अपने बिस्तर से उठने वाला नहीं हूं। सुबह हम टीन की छत को फिर से लगा देंगे। लेकिन अपने चेहरे पर टपकते हुए पानी के कारण मैंने अपना विचार बदल दिया। बिस्तर से उठने पर मैंने पाया कि सीलिंग का अधिकांश हिस्सा तो टूट चुका है। मेरे खुले टाइपराइटर पर पानी टपक रहा था। बेचारा फिर कभी ठीक नहीं हो सका।

बिस्तर के किनारे रखे रेडियो और बिस्तर की चादरों पर भी पानी की टप-टप चालू थी। अपने कमरे के भीतर गिरते-पड़ते मैंने देखा कि लकड़ी की बीम के बीच-बीच से पानी रिस रहा था और मेरी किताबों की अलमारी पर मजे से बरस रहा था। इस बीच बच्चे भी मेरे पास आ गए थे। वे मेरा बचाव करने के लिए आए थे। उनके हिस्से की छत अभी तक सही-सलामत थी। बड़े लोग खिड़कियां बंद करने के लिए संघर्ष कर रहे थे, जो खुली रहने के लिए बेताब थीं और ज्यादा से ज्यादा हवा और पानी को अंदर आने का रास्ता दे रही थीं।

‘किताबों को बचाओ!’ सबसे छोटी डॉली चिल्लाई और उसके बाद अगले एक घंटे हम किताबों को बचाने में ही लगे रहे। डॉली और उसके भाई दोनों बांहों में किताबें भर-भरकर उन्हें अपने कमरे में ले जाने लगे, लेकिन पूरे फ्लैट की फर्श पर पानी बह रहा था, इसलिए किताबों को भी बिस्तर पर जमाना पड़ा। डॉली मुझे कुछ फाइलें और पांडुलिपियां संभालने में मदद कर रही थी, तभी एक बड़ा सा चूहा डेस्क पर से उसके सामने कूद पड़ा। डॉली जोर से चिल्लाई और दरवाजे की ओर भागी। ‘अरे कोई बात नहीं,’ मुकेश बोल पड़ा।

जानवरों के प्रति उसका प्रेम इतना ज्यादा था कि सड़क के चूहों के लिए भी उमड़ पड़ता था। ‘वह सिर्फ तूफान से अपना बचाव कर रहा है।’ बड़े भाई राकेश ने हमारे कुत्ते गूफी को बुलाने के लिए सीटी बजाई, लेकिन गूफी को उस समय चूहे में कोई रुचि नहीं थी। उसने रसोई में अपने लिए एक सूखा कोना खोज लिया था, जो घर में उस समय एकमात्र सूखी हुई जगह थी और उसने तूफान के बीच भी अपने सोने की तैयारी कर ली थी।

इस समय दो कमरे तो बाकायदा छतविहीन हो गए थे और आसमान में लगातार कड़कती बिजली की चमक से रोशन हो जाते थे। घर के अंदर भी पटाखे छूट रहे थे क्योंकि बिजली के एक टूटे हुए तार पर पानी छू गया था। अब तो पूरे घर की ही बिजली चली गई। बिजली जाने से एक तरह से घर ज्यादा सुरक्षित हो गया था। राकेश ने अब तक दो लैंप खोज लिए थे और उन्हें जला भी दिया था। हमने किताबें, कागज और कपड़े बच्चों के कमरे में पहुंचाना जारी रखा। तभी हमने देखा कि फर्श पर पानी अब कुछ कम होने लगा था।

‘ये जा कहां रहा है?’ डॉली ने पूछा, क्योंकि हमें पानी के निकलने का कोई रास्ता तो नजर आ नहीं रहा था।
‘फर्श से होकर फ्लैट के नीचे जा रहा है,’ मुकेश ने कहा। वह सही था। हमारे पड़ोसियों का चौंकना (जो अब तक इस तूफान के असर से बचे हुए थे) ये बता रहा था कि अब उन्हें भी उनके हिस्से की बाढ़ मिल रही थी। हमारे पांव ठंड से बिल्कुल जम रहे थे क्योंकि हमारे पास जूते पहनने का भी वक्त नहीं था। वैसे भी हमारे सारे जूते-चप्पल पानी में भीगे हुए थे। किताबों के साथ-साथ मेज-कुर्सियों को भी ऊंची जगहों पर जमाया जा चुका था।

उस रात से पहले इस ओर कभी मेरा ध्यान ही नहीं गया था कि मेरी किताबों की लाइब्रेरी कितनी विशालकाय है। लगभग दो हजार किताबों को बचाया जा चुका था। पलंग को घसीटकर बच्चों के कमरे के सबसे सूखे कोने में पहुंचा दिया गया। उस पर कंबल-रजाइयों का ढेर लगा हुआ था। वह पूरी रात हमने उस पलंग पर बिताई, जबकि बाहर तूफान गुस्से में गरजता रहा।
लेकिन तभी हवा और निर्दयी हो गई और बर्फ पड़ने लगी।

मैं देख सकता था कि दरवाजे से लेकर बैठक तक सीलिंग की दरारों में से बर्फ गिर रही थी और तस्वीरों के फ्रेम और इधर-उधर बिखरी चीजों पर जमा हो रही थी। कुछ निर्जीव चीजें जैसे गोंद की शीशी और प्लास्टिक की गुड़िया बर्फ से ढंकी हुई खास तरह से सुंदर लग रही थीं। दीवार पर टंगी घड़ी ने चलना बंद कर दिया। चारों ओर से बर्फ से ढंकी घड़ी मुझे सल्वाडोर डॉली की एक पेंटिंग की याद दिला रही थी।

मेरा शेविंग ब्रश ऐसा लग रहा था मानो अभी इस्तेमाल करने के लिए तैयार हो।जब सुबह हुई तो हमने देखा कि खिड़कियों की चौखट पर बर्फ जम गई है। फिर सूरज उगा और सीलिंग की दरारों में से झांकने लगा। सूरज की रोशनी में कमरे की हर चीज सोने की तरह दमक उठी। किताबों की अलमारी पर बर्फ के टुकड़े दमक रहे थे। राकेश बढ़ई और लोहार को बुलाने के लिए चला गया और हम बाकी लोग सारी चीजों को सूखने के लिए धूप में रखने लगे।

सिर्फ कुछ किताबें इतनी खराब हो चुकी थीं कि उन्हें फिर से ठीक करना संभव नहीं था। शाम तक अधिकांश छत वापस अपनी जगह पर लगाई जा चुकी थी। मेरे पास एक और विकल्प था कि मैं किसी होटल में चला जाता। मसूरी में कोई खाली घर नहीं है। लेकिन अब ये छत काफी बेहतर हो चुकी है। अब मैं और आत्मविश्वास के साथ अगले तूफान का इंतजार कर रहा हूं।
-लेखक पद्मश्री विजेता ब्रिटिश मूल के भारतीय साहित्यकार हैं।

सोमवार, 28 सितंबर 2009

बाघ के इंतजार में तीन रातें

मिस्टर अरोरा मुझे अपनी सूमो में बिठाकर फॉरेस्ट गेस्ट हाउस में ले गए। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं दो दिन में वापस लौट आऊंगा और वहां मुझे जंगल में छोड़ दिया। रेस्ट हाउस की देखभाल करने वाला रसोइया और चौकीदार, दोनों ही नजर आता था। उसने मेरे लिए एक कप कड़कदार और मीठी चाय बनाई।

रस्किन बॉन्ड

‘सर, आप जंगल देखने के लिए आए हैं?’ ‘हां,’ मैंने बंगले के गेट के बाहर चारों ओर का नजारा देखते हुए जवाब दिया, जहां धूल-मिट्टी में कुछ पालतू मुर्गियां इधर-उधर टहल रही थीं। ‘यह सबसे अच्छी जगह है सर,’ चौकीदार ने कहा, ‘देखिए, नदी यहां से ठीक नीचे ही है।’ बंगले से मात्र पचास मीटर की दूरी पर पारदर्शी पहाड़ी जल की एक धारा साल और शीशम के घने छायादार जंगल के रास्तों से बह रही थी। ‘जानवर रात में आते हैं,’ चौकीदार बोला। ‘चीतल, सांभर, जंगली सूअर और कभी-कभार हाथी भी। आप एक कप चाय के साथ यहां बरामदे में बैठ सकते हैं और जानवरों को देख सकते हैं। आज रात आसमान में तीन चौथाई चांद है। आज तो सब साफ-साफ नजर आएगा। लेकिन आप बिलकुल शांत रहिएगा।’

‘मुझे बाघ दिखाई देगा?’ मैंने पूछा। ‘मैं बाघ को देखना चाहता हूं।’‘सर, हो सकता है बाघ भी आए,’ बड़ी सहानुभूतिपूर्ण मुस्कराहट के साथ चौकीदार ने कहा। ‘इस पूरे जंगल में सिर्फ एक ही बाघ बचा रह गया है।’ उसने मेरे लिए सादा सा दोपहर का खाना बनाया- दाल, चावल, आलू-गोभी की करी वाली सब्जी और साथ में स्वादिष्ट आम का अचार। प्राय: जंगल में अकेले रहने वाले चौकीदार बहुत शानदार रसोइए भी बन जाते हैं। मैंने रेस्ट हाउस के बरामदे में बैठकर दोपहर का खाना खाया। सामने खुली जगह में एक मोर अपने पंख फैलाकर फड़फड़ा रहा था। लेकिन मैं मोर के पंख देखकर बहुत संतुष्ट नहीं था। मैंने असंख्य मोर देख रखे थे। मुर्गियां तो जहां देखो, वहीं पर होती हैं। ‘क्या तुम्हारी मुर्गियों को जंगली जानवरों से खतरा नहीं होता?’ मैंने पूछा। ‘अंधेरा होने के बाद हमें उन्हें ताले में बंद करना पड़ता है, वरना जंगली बिल्ली उन्हें उठा ले जाएगी।’ जब अंधेरा घिर आया तो मैं बरामदे में केन की एक पुरानी कुर्सी पर अपने लिए आरामदायक जगह बनाते हुए जमकर बैठ गया। चौकीदार शेर सिंह (उसका यह नाम बिलकुल सही था) एक थाली में मेरे लिए खाना ले आया। उसे कैसे पता कि कोफ्ता मेरी सबसे पसंदीदा सब्जी है? रोटियां एक-एक करके बारी-बारी से आ रही थीं। उसका दस साल का बेटा रसोई से एक-एक करके गर्मागर्म रोटियां लेकर आ रहा था। वह उन दिनों स्कूल की छुट्टियों के समय पिता की मदद कर रहा था।

खाने के बाद दूध और शक्कर वाली एक कप चाय के साथ मैंने अपना रात्रि जागरण शुरू किया। फैली हुई रात में शेर सिंह, उसके बेटे और मुर्गियों को स्थिर होने में करीब एक घंटे का समय लगा। घर में बिजली नहीं थी, लेकिन उस लड़के के पास बैटरी से चलने वाला एक रेडियो था, जिस पर वह क्रिकेट कमेंट्री सुन रहा था। कोई भी आत्मसम्मान वाला बाघ क्रिकेट की कमेंट्री से आकर्षित नहीं हो सकता था। आखिरकार उसने रेडियो बंद कर दिया और सो गया। पहाड़ी पर चांद उग आया था और चांद की रोशनी में धारा बिलकुल साफ नजर आ रही थी। और तभी एक तेज आवाज से रात की फिजा गूंज उठी। यह बाघ या तेंदुए की आवाज नहीं थी, लेकिन आवाज धीरे-धीरे तेज होती जा रही थी- डुक, डुक, डुक। धारा के कीचड़ भरे किनारों से आवाज उठ रही थी। ऐसा लग रहा था मानो पूरे जंगल के मेंढक रात के लिए वहां इकट्ठे हो गए थे। जरूर उनके यहां कोई चुनावी रैली हो रही थी, क्योंकि हर किसी के पास कहने के लिए कुछ न कुछ था। लगभग एक घंटे तक उनका भाषण चलता रहा और फिर सभा निरस्त हो गई। जंगल में फिर से शांति लौट आई।

उस रात कोई जानवर पानी पीने नहीं आया। अगली शाम शेर सिंह ने खुद भी मेरे साथ जागने का प्रस्ताव रखा। उसने बरामदे में एक तेल का स्टोव रखा और एक बड़े से बर्तन में चाय भरकर उसके ऊपर रख दिया। ‘जब भी नींद आएगी, मैं आपको एक कप चाय दूंगा।’ क्या ये तेंदुए की आवाज है या कोई लकड़ियां चीर रहा है? आवाज बड़ी मिलती-जुलती सी थी। एक सियार लुक-छिपकर वहां आया। इसी तरह दो भेड़िए भी आए। इसमें कोई शक नहीं कि वे सब शेर सिंह की मुर्गियों की तलाश में वहां आए थे। मेंढक फिर से शुरू हो गए। शादीशुदा मेंढक जरूर इस बार अपनी बीवियों को भी साथ लेकर आए थे, क्योंकि भाषणों के अलावा इस बार ढेर सारी टर्र-टर्र, शिकायतें और चटर-पटर भी हो रही थी, जैसे कोई किटी पार्टी चल रही हो।

सुबह तक तकरीबन मैं पंद्रह कप चाय पी चुका था, लेकिन फिर भी बाघ नहीं नजर आया। मेरे दादा, जो भारत में चाय बागान लगाने वालों में अग्रणी थे, उनके प्रति अपने सम्मान के कारण मैंने कोई शिकायत नहीं की। और न ही इससे अच्छे नाश्ते की मांग कर सका- ताजे अंडे, टोस्ट पर लगा हुआ घर का बना हुआ मक्खन और बेशक ढेर सारी चाय। तीसरी रात भी लगभग उसी तरह गुजर गई, सिवाय इसके कि जंगली सूअरों का एक समूह आया और उन्होंने शेर सिंह के सब्जियों के बगीचे को ही खोद डाला। दोपहर तक मिस्टर अरोरा मुझे लेने के लिए अपनी सूमो में आए। ‘कुछ देखा आपने?’ उन्होंने पूछा। ‘कुछ खास नहीं, लेकिन मैंने बहुत बढ़िया नाश्ता किया।’ ‘कोई बात नहीं। शायद अगली बार किस्मत अच्छी हो।’ मैंने शेर सिंह और उसके बेटे को गुडबाय कहा, उनसे फिर आने का वादा किया और सूमो में सवार हो गया। हम जंगल की सड़क पर मुश्किल से १क्क् मीटर ही गए होंगे कि मिस्टर अरोरा ने अचानक एक झटके के साथ अपनी गाड़ी रोक दी। वहां बिलकुल सड़क के बीचोंबीच सिर्फ कुछ मीटर की दूरी पर हमारे सामने एक विशालकाय बाघ खड़ा था।

बाघ हमें देखकर न तो दहाड़ा और न ही गुर्राया। उसने बस हमें एक नजर बेरुखी से देखा, मुड़ा और बिलकुल भव्य राजसी अंदाज में सड़क पार करके जंगल में चला गया। ‘क्या किस्मत है!’ मिस्टर अरोरा खुशी से चीखे। ‘अब आप शिकायत नहीं कर सकते मिस्टर बॉन्ड। आपने बाघ देख लिया और वह भी दिन-दहाड़े उजाले में। लगातार तीन रातों से जागने के कारण अब आपको बहुत थकान लग रही होगी। एक कप शानदार चाय हो जाए। क्या ख्याल है?’ ‘मेरे ख्याल से मुझे ज्यादा कड़क चीज की जरूरत है’ मैंने कहा। जब हम मुख्य सड़क पर आ गए, मैंने एक साइनबोर्ड की ओर इशारा किया, जिस पर लिखा हुआ था : ‘अंग्रेजी वाइन शॉप।’ यहीं गाड़ी रोक लीजिए और मि. अरोरा ने बड़ी उदारता से मेरी बात मान ली।

-लेखक पद्मश्री विजेता ब्रिटिश मूल के भारतीय साहित्यकार हैं।

बुधवार, 23 सितंबर 2009

माउंट एवरेस्ट की शिला सुनाएगी अपने दर्द की दास्तान

हिमालय के दर्द कॊ दुनिया के सामने रखने का नायाब और निराला तरीका ढूंढा है नेपाल के प्रधानमंत्री माधव कुमार नेपाल ने।

अमेरिका की यात्रा पर जा रहे नेपाल अपने साथ दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत चॊटी माउंट एवरेस्ट की एक शिला ले जा रहे हैं। प्रधानमंत्री जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय के पर्यावरण और परिस्थितिकी पर पड रहे असर पर दुनिया का ध्यान खींचने के लिए इस शिला कॊ अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कॊ भेंट करेंगे,जॊ हिमालय पर जलवायु परिवर्तन की मौन कथा कह रहा हॊगा। इस शिला को एक शेरपा 20035 फुट ऊंची माउंट एवरेस्ट से लाया है। शिला लाने वाला शेरपा मई में १९वीं बार माउंट एवरेस्ट पर चढाई करके विश्व रिकार्ड बना चुका है।

दरअसल यह शिला पत्थर का एक टुकड़ा भर नहीं हैं बल्कि पहाड़ की बेचैनी उसकी पीड़ा का खामोश गवाह भी है। मानवीय कारगुजारियों और प्रदूषण के आतंक ने हिमालय की ऊंची और विराट चोटियों को किस तरह दरहम-बरहम कर दिया है यह शिला इसका प्रतीक भी है। अमरीका में इस शिला के होने का मतलब यह भी होगा कि
दुनिया वालों अब तो चेतो और प्रदूषण से कराह रहे हिमालय की पुकार सुनो क्योंकि जब हिमालय ही नहीं होगा तो तुम्हारी रंगीन दुनिया भी कहां होगी। क्यों, ठीक है न।

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

तुंगनाथ की जादुई दुनिया

हिमालय के बीच तुंगनाथ की एकांत उपस्थिति किसी जादू की तरह महसूस होती है। चोपटा से तुंगनाथ की दूरी सिर्फ साढ़े तीन मील है, लेकिन उस थोड़ी सी दूरी में हम तकरीबन 300 फीट की ऊंचाई पर चढ़ते हैं। ऐसा लगता है कि रास्ता बिल्कुल लम्बत खड़ा हुआ है। मैं खुद को यह सोचने से रोक नहीं पाता कि मानो ह स्र्ग की ओर जाने वाली सीढ़ियां हैं।

रस्किन बॉन्ड

पद्मश्री ब्रिटिश मूल के साहित्यकार

हिमालय की आंतरिक श्रंखलाओं में 12,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित तुंगनाथ मंदिर सबसे ऊंचा मंदिर है। यह चंद्रशिला चोटी के ठीक सामने स्थित है। तीर्थयात्रा के रास्ते से उलट रास्ता होने के कारण केदारनाथ और बदरीनाथ की तुलना में यहां आवाजाही कम होती है, यद्यपि यह केदार मंदिर का ही एक हिस्सा है। इस मंदिर का पुजारी एक स्थानीय आदमी है। माकू गांव का ही एक ब्राह्मण है। दूसरे केदार मंदिरों के पुजारी दक्षिण भारतीय हैं। यह परंपरा अठारहीं सदी के हिंदू सुधारक शंकराचार्य ने प्रारंभ की थी।


तुंगनाथ की एकांत उपस्थिति इसे अपनी तरह का अनोखा जादू प्रदान करती है। वहां जाने के लिए गढ़वाल के हिमालय में बसे कुछ बहुत आनंददायक और समशीतोष्ण जंगलों से होकर गुजरना पड़ता है। कोई तीर्थयात्री, कोई ट्रैकर या मेरे जैसा कोई साधारण आदमी जब यहां आता है तो ज्यादा तरोताजा और खुद को ज्यादा बेहतर इंसान महसूस करता है। हम जान पाते हैं कि यह धरतीवेस्त में पहले कैसी थी, जब मनुष्य ने इसका क्षरण करना नहीं शुरू किया था।तुंगनाथ की समूची श्रंखला से गुजरते हुए यह अनुभूति होती है। सड़क आपको लगभग 900 फीट की ऊंचाई पर तुगालबेटा ले जाती है, जहां सुंदर रंगों में पुता हुआ चीड़ और देदार के पेड़ों से घिरा खूबसूरत सा पीडब्ल्यूडी का एक गेस्ट हाउस है।

बहुत से अधिकारी जो इस गेस्ट हाउस में रुक चुके हैं, तुगालबेटा के सौंदर्य के बारे में बताते हैं। और अगर आप अधिकारी नहीं हैं (इसलिए आप उस रेस्ट हाउस में नहीं ठहर सकते) तो आप चोपटा चले जाइए। हां पर एक टूरिस्ट रेस्ट हाउस है। तीर्थयात्रा के पूरे रास्ते पर इस तरह के टूरिस्ट रेस्ट हाउस बने हुए हैं। ये रेस्ट हाउस तीर्थयात्रियों के लिए रदान हैं, लेकिन तीर्थयात्रा के मौसम में (मई से लेकर अक्टूबर तक) ठसाठस भरे रहते हैं और अगर पहले से सूचना दिए बगैर आप हां पहुंच जाएं तो हो सकता है कि आपको किसी दुकान या धर्मशाला में रात गुजारनी पड़े। चोपटा से तुंगनाथ की दूरी सिर्फ साढ़े तीन मील है, लेकिन उस थोड़ी सी दूरी में हम तकरीबन 300 फीट की चढ़ाई चढ़ते हैं। ऐसा लगता है कि रास्ता बिल्कुल सीधा खड़ा हुआ है।

मैं खुद को यह सोचने से रोक नहीं पाता कि मानो हवस्र्ग की ओर जानेवाली सीढ़ियां हैं। रास्ते की ऊंचाई और ढलान के बाजूद मेरे साथी ने जिद की कि हमें शॉर्टकट रास्ते से जाना चाहिए। ऊपर जाने का कुछ रास्ता पार करने के बाद ऊपर सीढ़ियों पर गुच्छे-गुच्छे अल्पाइन घास उगी हुई थी। हम आधे रास्ते में ही फंस गए। फिर हमें बहुत धीरे-धीरे रेंगते हुए नीचे उतरना पड़ा। हमें सांप-सीढ़ीवाले खेल की याद हो आई।

हमेशा वाले रास्ते पर लौटने के बाद हम भगवान गणेश के एक छोटे से मंदिर से गुजरे। इतनी तीखी और ऊंची चढ़ाई के बाजूद मैं थका नहीं था। ठंडी, ताजी हवा और चारों ओर बिखरी हुई हरियाली प्राणायु का काम कर रही थी। खुली ढलानों पर असंख्य जंगली फूल उग आए थे। बटरकप्स, जंगली स्ट्रॉबेरी और फॉरगेट मी नॉट के ढेरों पौधे उसे किसी फूलों की घाटी में तब्दील कर रहे थे। अल्पाइन घास के मैदानों में पहुंचने से पहले हम बुरुंश के जंगलों से होकर गुजरते हैं। लाल-लाल फूलोंवाले बुरुंश के पेड़ 6000 फीट से लेकर 10,000 फीट की ऊंचाई तक पूरे हिमालय में मिलते हैं, लेकिन यहां 10,000 फीट से ऊपर सफेद फूलों की तमाम प्रजातियां मिलीं। प्राय: ये पेड़ 12 फीट से ज्यादा ऊंचे होते हैं और बर्फ के भारी दबा के कारण कुछ तिरछे होकर उगते हैं। बुरुंश के पेड़ हमारे रास्ते में आनेवाले आखिरी पेड़ थे। जैसे ही हम तुंगनाथ पहुंचे, पेड़ हां खत्म हो गए थे और मानो जैसे आकाश और धरती के बीच कुछ छोटी-छोटी घास के सिवा और कुछ भी नहीं था। हमारे ऊपर कुछ कौओं ने झपट्टा मारा। कौए कितनी भी ऊंचाई और मौसम में आसानी से रह लेते हैं। भोपाल की सड़कों और तुंगनाथ की ऊंचाइयों पर बड़े आराम से अपना घर बना लेते हैं।

इन कौओं की तरह किसी भी मौसम में जीवित रहनेवाला दूसरा प्राणी है पिकावा पिकावा एक किस्म का चूहा होता है। यह बात अलग है कि वह चूहा कम और गिनीपिग जैसा ज्यादा दिखता है। उसके कान छोटे होते हैं, पूंछ होती नहीं, स्लेटी-भूरे रंग के बाल और मोटे-मोटे पैर होते हैं। इन नन्हे जको अकसर चुपचाप अपने बिलों से निकलते और भोजन की तलाश करते देखा जा सकता है। अपने सादे भोजन और घने बालों के कारण वे भयंकर ठंड में भी रह सकते हैं। 16,000 फीट तक ऊंचाई पर मिलते हैं, जो किसी भी स्तनधारी जी के लिए सबसे ज्यादा ऊंचाई है। गढ़ाली इस नन्हे से जी को रुंडा कहते हैं। मंदिर के पुजारी भी इसे यही कहकर बुलाते हैं और कहते हैं कि यह इतना बहादुर है कि राशन खाने के लिए किसी भी दुकान या घर में मजे से घुस जाता है। इससे पता चलता है कि उसमें चूहे के गुण ज्यादा हैं। चोपटा से लेकर तुंगनाथ तक चट्टानों के पीछे से झांकते और पहाड़ियों पर नजर आते ये रुंडा हमारे साथ थे। उन्हें हमारी उपस्थिति की कोई पराह नहीं थी। तुंगनाथ में वे मंदिर के पत्थरों के नीचे बिलों में रहते हैं। ये रुंडा एक सूराख से भीतर घुसते हैं और किसी दूसरे सूराख से बाहर निकलते हैं। अंडरग्राउंड रास्तों का उनका नेटर्क बड़ा जटिल है।

जब तक हम पहुंचे बादलों ने तुंगनाथ को पूरी तरह ढंक लिया था, जैसा कि हर दोपहर के बाद होता है। यह मंदिर बहुत बड़ा नहीं है, लेकिन बहुत प्रभावित करता है। जब आप मंदिर से नीचे की ओर झांकते हैं तो सिर्फ कत्थई और स्लेटी रंग की छतें और पत्थरों के ढेर नजर आते हैं। जब हम वहां से लौटने लगे तो बारिश शुरू हो गई। हम किसी तरह धर्मशाला पहुंचे। कौए अभी भी धुंधले आसमान में मंडरा रहे थे, रुंडा ने बिल में से अपनी नाक बाहर निकाली, शायद मौसम का जायजा लेने के लिए। तूफान की गड़गड़ाहट हुई और वह तेजी सेवपस अपने बिल में घुस गया। अभी हम तुंगनाथ से नीचे आधी सीढ़ियां ही उतरे थे कि बहुत जोरों की बारिश होने लगी। रास्ते में हमें कुछ बंगाली तीर्थयात्री मिले, जो तेज तूफान में सीधे ऊपर चले आ रहे थे। उनके पास छाता या रेनकोट नहीं था, लेकिन वे जरा भी निरुत्साहित नहीं थे। मेरी कलाई की घड़ी एक चट्टान से टकराई और उसका कांच टूट गया। उस वक्त वहां समय कोई मायने भी नहीं रखता था।

नदी, चट्टानें, पेड़-पौधे, पशु और पक्षी, ये सभी मिथकों और रोजमर्रा की पूजा-अर्चना में अपनी अहम भूमिका निभाते हैं। इन एकांत सुदूर इलाकों में प्रकृति के साथ इनका तादात्म्य साफ दिखाई देता है, जहां ईश्रवर और पहाड़ों का सहअस्तित् विद्धमान है। अभी तक भौतिकादी दुनिया की छाया से अछूता तुंगनाथ खुले हृदय और मस्तिष्क से यहां आनेवालों पर अपना जादू करता है।


दैनिक भास्कर से सभार

सोमवार, 14 सितंबर 2009

दिल में उतरती गंगाजी

इस बात को लेकर हमेशा एक मामूली सा विवाद रहता है कि अपने ऊपरी उद्गम स्थल में वास्तविक गंगा कौन है - अलकनंदा या भगीरथी। बेशक ये दोनों नदियां देवप्रयाग में आकर मिलती हैं और फिर दोनों ही नदियां गंगा होती हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं, जो कहते हैं कि भौगोलिक दृष्टि से अलकनंदा ही गंगा है, जबकि दूसरे लोग कहते हैं कि यह परंपरा से तय होना चाहिए और पारंपरिक रूप से भगीरथी ही गंगा है।


रस्किन बॉन्ड


पद्मश्री ब्रिटिश मूल के साहित्यकार


मैंने अपने मित्र सुधाकर मिश्र के सामने यह प्रश्न रखा, जिनके मुंह से प्रज्ञा के शब्द कभी-कभी स्वत: ही झरने लगते हैं। इसे सत्य ठहराते हुए उन्होंने उत्तर दिया, ‘अलकनंदा गंगा है, लेकिन भगीरथी गंगाजी हैं!’


कोई यह समझ सकता है कि उनके कहने का क्या आशय है। भगीरथी सुंदर हैं और उनका अप्रतिम सौंदर्य अपने मोहपा में जकड़ लेता है। भगीरथी के प्रति लोगों के मन में प्रेम और सम्मान का भाव है। भगवान शिव ने अपनी जटाओं को खोलकर देवी गंगा के जल को प्रवाहित किया था। भगीरथी के पास सबकुछ है - नाजुक गहन विन्यास, गहरे र्दे और जंगल, दूर-दूर तक पंक्ति-दर-पंक्ति हरियाली से सजी चौड़ी घाटियां, शनै: शनै: ऊंची चोटियों तक जाते पहाड़ और पहाड़ के मस्तक पर ग्लेशियर। गंगोत्री 10,300 फीट से थोड़ी ज्यादा ऊंचाई पर स्थित है। नदी के दाएं तट पर गंगोत्री मंदिर है। यह एक छोटी साफ-सुथरी सी इमारत है। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में एक नेपाली जनरल अमर सिंह थापा ने इसे बनवाया था।


यहां बर्फ और पानी ने ही चट्टानों को सुंदर आकारों में ढाल दिया है और उसे चमकदार बना दिया है। वे इतनी चिकनी हैं कि कुछ जगहों पर तो ऐसा लगता है मानो सिल्क के गोले हों। पहाड़ों पर तेजी से प्रवाहित होती जलधारा सलीके से बहती नदी से तो बहुत अलग दिखाई पड़ती है। यह नदी पंद्रह हजार मील की दूरी तय करने के बाद आखिरकार बंगाल की खाड़ी में जाकर गिर जाती है। गंगोत्री से कुछ दूर जाने पर नदी विशालकाय ग्लेशियर के भीतर से प्रकट होती है। ऐसा लगता है कि बड़ी-बड़ी चट्टानों के ढेर सारे टुकड़े नदी में यहां-वहां जड़ दिए गए हैं। ग्लेशियर लगभग एक मील चौड़ा और कई मील ऊंचा है, लेकिन कहा जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वह सिकुड़ रहा है। ग्लेशियर की वह दरार, जहां से होकर नदी की धारा प्रवाहित होती है, गोमुख या गाय का मुख कहलाती है। गोमुख के प्रति लोगों के मन में गहन श्रद्धा और सम्मान है।


गंगा इस संसार में किसी छोटी-मोटी धारा के रूप में प्रवेश नहीं करती है, बल्कि अपनी बर्फीली कंदराओं को तोड़कर जब वह धरती पर प्रकट होती है तो 30-40 फीट चौड़ी होती है। गंगोत्री मंदिर के नीचे गौरी कुंड में गंगा बहुत ऊंचाई से चट्टान पर गिरती है और उसके बाद जब तक नीचे आकर समतल नहीं हो जाती, तब तक काफी दूर तक लहराती-बलखाती एक झरना सा बनाती चलती है। गौरी कुंड की ध्वनियों के बीच बिताई गई रात एक दिव्य रहस्यमय अनुभव है। कुछ समय के बाद ऐसा लगता है मानो एक नहीं, सैकड़ों झरनों की आवाजें हैं। वह आवाज जाग्रत अवस्था में और स्वप्नों में भी प्रवेश कर जाती है।


गंगोत्री में उगते हुए सूरज का स्वागत करने के लिए सुबह जल्दी उठ जाने का ख्याल बेकार है क्योंकि यहां चारों ओर से छाए हुए ऊंचे-ऊंचे पर्वत शिखर 9 बजे से पहले सूरज को आने नहीं देते। हर कोई थोड़ी सी गर्मी पाने के लिए बेताब होता है। उस ठंडक को लोग बड़े प्यार से ‘गुलाबी ठंड’ कहते हैं। वह सचमुच गुलाबी होती है। मुझे सूरज की गुलाबी गर्मी पसंद है, इसलिए जब तक उस पवित्र धारा पर अपनी सुनहरी रोशनी बिखेरने के लिए सूरज नहीं निकलता, मैं अपनी भारी-भरकम रजाई से बाहर नहीं निकलता हूं।


दीपावली के बाद मंदिर बंद हो जाएगा और पंडित मुखबा की गर्मी में वापस लौट जाएंगे। यह ऊंचाई पर स्थित एक गांव है, जहां विलसन ने अपना टिंबर का घर बनवाया था। देवदार के कीमती टिंबर ने पेड़ों से पटी इस घाटी की ओर विलसन का ध्यान खींचा। उसने 1759 में टिहरी के राजा से पांच साल के पट्टे पर जंगल लिया और उस थोड़े समय में ही अपनी किस्मत बना ली। धरासू, भातवारी और हरसिल के जंगलों के पुराने रेस्ट हाउस विलसन ने ही बनवाए थे। देवदार के लट्ठे नदी में बहा दिए जाते और ऋषिकेश में उन्हें इकट्ठा किया जाता। भारतीय रेलवे का तेजी से विस्तार हो रहा था और मजबूत देवदार के लट्ठे रेलवे स्लीपर बनाने के लिए सबसे मुफीद थे। विलसन ने बेतहाशा शिकार भी किया। वह जानवरों की खाल, फर कलकत्ता में बेचा करता था। वह उद्यमी और साहसी था, लेकिन उसने पर्यावरण को बहुत नुकसान भी पहुंचाया।


विलसन ने गुलाबी नाम की एक स्थानीय लड़की से शादी की थी, जो ढोल बजाने वालों के परिवार से आई थी। उनके तैलचित्र अभी भी दो रेस्ट हाउस में टंगे हुए हैं। उसके गरुड़ जैसे वक्राकार नैन-नक्श और घूरते हुए हाव-भाव के बिलकुल उलट गुलाबी के चेहरे के हाव-भाव बहुत नाजुक और कोमल हैं। गुलाबी ने विलसन को दो बेटे दिए। एक की बहुत कम उम्र में ही मृत्यु हो गई और दूसरे बेटे ने पिता की विरासत संभाली। 1940 के दशक में विलसन का परपोता मेरे साथ स्कूल में पढ़ता था। 1952 में वह इंडियन एयरफोर्स में भर्ती हुआ। वह एक हवाई दुर्घटना में मारा गया था और इसी के साथ विलसन परिवार का अंत हो गया।


विलसन के कामों में एक पुल निर्माण भी था। हरसिल और गंगोत्री मंदिर की यात्रा को सुगम बनाने के लिए उसने घुमावदार लोहे के पुल बनवाए। उनमें सबसे प्रसिद्ध 350 फीट का लोहे का एक पुल है, जो नदी से 1200 फीट की ऊंचाई पर है। यह पुल गड़गड़ाहट की आवाज करता था। शुरू-शुरू में तो यह हिलने वाला यंत्र तीर्थयात्रियों और अन्य लोगों के लिए आतंक का विषय था और कुछ ही लोग इससे होकर गुजरते थे। लोगों को भरोसा दिलाने के लिए विलसन प्राय: पुल पर सरपट अपना घोड़ा दौड़ाता। पहले-पहल बने उस पुल को टूटे हुए अरसा गुजर चुका है, लेकिन स्थानीय लोग आपको बताएंगे कि अभी भी पूरी चांदनी रातों में विलसन के घोड़ों की टापों की आवाज सुनाई पड़ती है। पुराने पुल को सहारा देने वाले खंभे देवदार के तने थे और आज भी उत्तर रेलवे के इंजीनियरों द्वारा बनवाए गए नए पुल के एक तरफ उन तनों को देखा जा सकता है।

विलसन की जिंदगी रोमांच का विषय है, लेकिन अगर उस पर कभी कुछ नहीं भी लिखा गया तो भी उसकी महान शख्सियत जिंदा रहेगी, जैसेकि पिछले कई दशकों से जिंदा है। जितना संभव हो सका, पहाड़ों के अलग-थलग एकांत में विलसन ने अकेली जिंदगी बिताई। उसके शुरुआती वर्ष किसी रहस्य की तरह हैं। आज भी घाटी में लोग उसके बारे में कुछ भय से ही बात करते हैं। उसके बारे में अनंत कहानियां हैं और सब सच भी नहीं हैं। कुछ लोगों के जाने के बाद भी उनकी अपूर्व कथाएं बची रह जाती हैं क्योंकि जहां वे रहते थे, वहां वे अपनी आत्मा छोड़ जाते हैं।

दैनिक भास्कर से सभार

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

बद्रीनाथ को जाती सड़क

अपने छोटे से कमरे की खिड़की खोलकर जैसे ही मैंने बाहर नजर डाली, बर्फ से ढंकी हुई नीलकंठ की चोटी पर सूरज चढ़ता हुआ दिखाई दिया। पहले-पहल तो बर्फ गुलाबी रंग की हुई, फिर नारंगी और फिर सुनहरे रंग में बदल गई। जब मैंने आकाश में तने हुए उस भव्य शिखर को देखा तो मेरी सारी नींद हा हो गई। और उसी क्षण उस चोटी पर भगान विष्णु अवतरित हुए।

रस्किन बॉन्ड
पद्मश्री ब्रिटिश मूल के साहित्यकार

अगर आपने मंदाकिनी घाटी की यात्रा की है और अलकनंदा की घाटी तक भी गए हैं तो आपको दोनों में काफी फर्क महसूस हुआ होगा। मंदाकिनी घाटी ज्यादा नाजुक, समृद्ध और हरी-भरी है। कई जगह तो ऐसा लगता है मानो सचमुच चरागाह उग आए हैं, जबकि अलकनंदा घाटी ज्यादा आकर्षक, ढलान जैसी, खतरनाक और अकसर उन लोगों के प्रति कठोर होती है, जो उसके आसपास की जगहों में रहते हैं और अपनी रोजी-रोटी कमाने के लिए काम करते हैं। जैसे ही हम चमोली से आगे बढ़ते हैं और बद्रीनाथ की सीधी, घुमादार चढ़ाई शुरू होती है, प्रकृति का चेहरा बहुत नाटकीय ढंग से बदलने लगता है। नदी की ओर जाते हुए हरे-भरे ढलुआ मैदान गायब होने लगते हैं। यहां पहाड़ ज्यादा जोखिम भरे ढलुआ चट्टानों में बदलने लगते हैं, पहाड़ तीखे और संकरे होते जाते हैं और नीचे बह रही नदी संकरे पहाड़ी रास्तों के संग कल-कल करती हुई भगीरथ, देप्रयाग पहुंचने के लिए बेताब हो रही होती है।

बद्रीनाथ मंदिर प्रबंधन का रिसॉर्ट जोशीमठ बलखाती हुई अलकनंदा के साथ-साथ ऊंचाई पर बना हुआ चिड़ियों के बैठने का अड्डा है। ६००० फीट की ऊंचाई पर मौसम बहुत सुहाना हो जाता है। यह खासा बड़ा कस्बा है। हालांकि आसपास की पहाड़ियां बिलकुल निर्जन नजर आती हैं, लेकिन यहां एक महान वृक्ष है, जो वक्त के थपेड़ों के बाद भी ज्यों का त्यों खड़ा है। यह प्राचीन शहतूत का पेड़ है। इसे कल्पवृक्ष (कामना पूर्ण करने वाला) कहते हैं। इसी वृक्ष के नीचे सदियों पूर्व शंकराचार्य ने ध्यान किया था। कहते हैं कि यह वृक्ष २००० वर्ष पुराना है और यह निश्चित ही मसूरी में मेरे चार कमरों के खासे बड़े फ्लैट से भी ज्यादा बड़ा है। मैंने कुछ बहुत विशालकाय वृक्ष देखे हैं, लेकिन यह संभतया उनमें सबसे प्राचीन और सबसे विशाल है। मुझे खुशी है कि शंकराचार्य ने इस वृक्ष के नीचे तपस्या की और इसे हमेशा के लिए सुरक्षित कर दिया। वरना यह पेड़ भी उन्हीं तमाम पेड़ों और जंगल की राह पर चला जाता, जो कभी इस इलाके में बहुत फले-फूले थे।

एक छोटा लड़का मुझसे कहता है कि यह कल्प वृक्ष है, इसलिए मैं इससे कुछ मांग सकता हूं। मैं मांगता हूं कि उसी की तरह हां के और पेड़ भी हरे-भरे रहें। ‘तुमने क्या मांगाज्, मैंने उस लड़के से पूछा। ‘मैंने मांगा कि आप मुझे पांच रुपए दोगे, उसने बड़ी चतुराई से जवाब दिया। उसकी इच्छा पूरी हो गई। मेरी इच्छा भविष्य की अनिश्चितताओं में छिपी हुई है, लेकिन उस लड़के ने मुझे कामना करने का पाठ सिखाया।

बद्रीनाथ में रहनेवाले लोग नंबर में यहां आ जाते हैं, जब मंदिर छह महीने के लिए पूरी तरह बर्फ से ढंक जाता है। यह बहुत खुशनुमा फैला हुआ पहाड़ी रिसॉर्ट है, लेकिन यहां पर छोटे होटल, आधुनिक दुकानें और सिनेमा हॉल भी हैं। जोशीमठ का विकास और हां आधुनिकता के पांव पड़ने की शुरुआत १९६० के बाद से हुई, जब पैदल तीर्थयात्रा के मार्ग पर पक्की सड़क बनने की शुरुआत हुई, जो तीर्थयात्रियों को बद्रीनाथ तक लेकर जाती है। अब तीर्थयात्री उस कल्प वृक्ष की छांव से वंचित रह जाते हैं क्योंकि वह मुख्य सड़क के रास्ते से थोड़ा हटकर है। अब लोग बस, निजी गाड़ियों या लक्जरी कोच से उतरते हैं, रास्ते में पड़नेवाले किसी रेस्त्रां में तरोताजा होते हैं और आगे बढ़ जाते हैं।

लेकिन अब भी कुछ लोग हैं जो बहुत कठिन रास्ता पार करके यहां तक आते हैं। खासकर वे लोग जिन्होंने संन्यास ले लिया है। ये धूप और बारिश, झाड़ियों से उड़नेवाली धूल और रास्ते के नुकीले कंकड़-पत्थरों की परवाह किए बगैर बद्रीनाथ से ऋषिकेश तक की यात्रा करते हैं। यहां पर एक ऐसा युवक मिला जो रोलर स्केट पहनकर पूरी यात्रा कर रहा था। उसके ऐसा करने की वजह न तो धार्मिक थी और न आध्यात्मिक। उसने बताया कि उसकी इच्छा है कि उसका नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्डस में शामिल हो। उसने मुझे अपनी इस उपलब्धि का गवाह होने के लिए कहा। वह चाहता था कि मैं बद्रीनाथ से लेकर ऋषिकेश तक रोलर स्केट्स पहनकर की जा रही उसकी पूरी यात्रा में शामिल होऊं। ‘बहुत खुशी से,जब मैंने उससे कहा। लेकिन तुम तो नीचे की ओर जा रहे हो और मैं ऊपर जा रहा हूं। मैंने उसे शुभकामनाएं दीं और कहा कि मैं गिनीज बुक में उसका नाम आने का इंतजार करूंगा। आखिरकार हम उस बंजर घाटी में पहुंच ही गए, तेज हाओं ने जिसे अपनी चपेट में ले रखा था। बद्रीनाथ की यह घाटी तेजी से विकसित होता कस्बा है। यह बहुत जिंदादिल और फलती-फूलती जगह है। ऊंची-ऊंची बर्फ से ढंकी चोटियों ने इसे चारों ओर से घेर रखा है। यहां होटलों और धर्मशालाओं की कमी नहीं है। इसके बाजूद हर होटल और रेस्ट हाउस हमेशा खचाखच भरे रहते हैं। तीर्थयात्रा के पूरे इलाके में यह सबसे ऊंची जगह है।

जिस तरह केदारनाथ हिमालय की घाटी में स्थित भगवान शिव के सबसे पवित्र मंदिरों में से एक है, उसी तरह बद्रीनाथ वैष्ण संप्रदाय के लोगों के लिए पूजा का सबसे पवित्र स्थान है। इसी जगह भगवान विष्णु अपने भक्तों के समक्ष स्यंभू प्रकट हुए थे। उनकी चार भुजाएं थीं और मोतियों का मुकुट माला पहनी हुई थी। श्रद्धालुओं का कहना है कि आज भी महान कुंभ के दिन नीलकंठ की चोटी पर भगवन विष्णु के दर्शन किए जा सकते हैं। नीलकंठ चोटी इस समूचे क्षेत्र में सबसे विशाल और ऊंची है और हां पर मुश्किल से ही कोई पेड़ या वनस्पति जीति रह पाते हैं। नीलकंठ की चोटी जादुई और प्रेरणा देनेवाली है। यह २१,६४० फीट ऊंची है और उसकी चोटी से बद्रीनाथ सिर्फ पांच मील दूर है। जिस शाम हम वहां पहुंचे थे, हम चोटी को नहीं देख सके क्योंकि बादलों ने उसे पूरी तरह ढंक लिया था।
बद्रीनाथ खुद बादलों की धुंध के बीच छिपा हुआ था, लेकिन हमने किसी तरह अपना रास्ता बनाया और मंदिर तक पहुंचे। यह लगभग ५० फीट ऊंची रंग-बिरंगी और खूबसूरती से सजाई गई इमारत है। ऊपर चमकदार छत है। मंदिर में काले पत्थर पर उकेरी गई भगान विष्णु की एक प्रतिमा है, जिसमें ध्यान की मुद्रा में खड़े हुए हैं। लोगों का अंतहीन काफिला उस मंदिर से गुजरता है, जो भगवान विष्णु के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं और उनसे अपनी समृद्धि के लिए प्रार्थना करते हैं।उस रंग-बिरंगे छोटे से मंदिर में चहल-पहल भरी खुशनुमा भीड़ का हिस्सा होना और एक पवित्र नदी को उसके उद्गम के इतने निकट से देखना बहुत सुखद था। और अगले ही दिन सुबह-सुबह मुझे इस सुखद अनुभव से गुजरने का मौका मिला। अपने छोटे से कमरे की खिड़की खोलकर जैसे ही मैंने बाहर नजर डाली, बर्फ से ढंकी हुई नीलकंठ की चोटी पर सूरज चढ़ता हुआ दिखाई दिया। पहले-पहल तो बर्फ गुलाबी रंग की हुई, फिर नारंगी और फिर सुनहरे रंग में बदल गई। जब मैंने आकाश में तने हुए उस भव्य शिखर को देखा तो मेरी सारी नींद हवा हो गई। और उसी क्षण उस चोटी पर भगवान विष्णु अतरित हुए। मुझे तनिक भी आश्चर्य नहीं था।

(दैनिक भास्कर से सभार)

सूख गया ब्रह्मा जी का सरोवर

पुष्कर में होटल सरोवर का यह एकमात्र कमरा है, जहाँ से प्रसिद्ध पुष्कर झील का पूरा-पूरा नज़ारा होता है। लेकिन यदि इस समय इस होटल की कबूतरों भरी बालकनी से आप झील का नज़ारा देखेंगे तो सिहर उठेंगे। क्या यही वह प्रसिद्ध झील है? इसे क्या हो गया है? बड़ा ही भयानक नज़ारा है। एक काले जादू की तरह समूचा पुष्कर तालाब ही गायब हो गया है। एक गाय झील के बीचो बीच खड़ी होकर घास चर रही है, यह देखकर दिल टूट जाता है।
ऐसा माना जाता है कि नागा कुण्ड के पानी से निःस्संतान दम्पतियों को आशा बँधती है, अब पूरी तरह सूख चुका है।

यही हाल रूप कुण्ड का भी है, जो रूप कुण्ड सुन्दरता और शक्ति प्रदान करने की ताकत रखता था, आज अपनी चमक खो चुका है। चारों ओर नज़र दौड़ाईये, चाहे वह कपिल व्यापी हो अथवा अन्य 49 घाटों के किनारे, सब दूर एक ही नज़ारा है, सूखा हुआ पाट, पानी गायब। जिन घाटों पर श्रद्धालु पवित्र डुबकियाँ लगाते थे अब वह वीरान पड़े हैं। हालांकि अभी भी तीन घाट ऐसे हैं जहाँ डुबकी लगाई जा सकती है, लेकिन वह पानी भी पास के बोरवेल का है और पानी का स्तर तथा क्षेत्र एक बड़े कमरे जितना ही है जो कि कार्तिक पूर्णिमा पर पुष्कर आने वाले पाँच लाख श्रद्धालुओं का बोझ नहीं सह सकेगा।जब से सर्वशक्तिमान ब्रह्मा जी ने इस पवित्र सरोवर का निर्माण किया है, तब से लेकर आज तक यह सिर्फ़ एक बार ही सूखा है, वह भी 1970 के भीषण सूखे के दौरान। तो फ़िर अब क्या हुआ? बहरहाल, सबसे पहले तो इस सरोवर के कायाकल्प की सरकारी योजना बुरी तरह भटककर विफ़ल हो गई, और रही-सही कसर इन्द्र देवता ने वर्षा नहीं करके पूरी कर दी। अब इस बात की पूरी सम्भावना है कि 25 अक्टूबर से 2 नवम्बर के दौरान लगने वाले प्रसिद्ध पुष्कर मेले के लिये आने वाले लाखों श्रद्धालु और विदेशी पर्यटकों को यह सरोवर सूखा ही मिले।जब हम सनसेट कैफ़े में बैठे थे, तब अचानक मूसलाधार बारिश की शुरुआत हुई। इस बारिश की शुरुआत ने ही समूचे शहर में मानो जान फ़ूंक दी, एक व्यक्ति सरोवर के किनारे-किनारे दौड़ता हुआ चिल्लाया "अभी भी आशा बाकी है, शायद जल्दी ही यह सरोवर भर जायेगा…"। लेकिन उत्साह अभी ठीक से शुरु भी नहीं हुआ था कि बारिश थम गई, और लोग फ़िर उदास हो गये। अजमेर से कुछ ही दूरी पर घाटी में पुष्कर का पवित्र सरोवर स्थित है और यह विशाल झील शुद्ध जल से भरी हुई होती है, यह पानी अमूमन आसपास की पहाड़ियों से एकत्रित होने वाला वर्षाजल ही है।

हिन्दू धर्मालु इसे "तीर्थराज" कहते हैं, अर्थात सभी तीर्थों में सबसे पवित्र, इस सम्बन्ध में कई लेख और पुस्तकें भी यहाँ मिलती हैं। कहा जाता है कि अप्सरा मेनका ने इस पवित्र सरोवर में डुबकी लगाई थी और ॠषि विश्वामित्र ने भी यहाँ तपस्या की थी, लेकिन सबसे बड़ी मान्यता यह है कि भगवान ब्रह्मा ने खुद पुष्कर का निर्माण किया है।
पुष्कर में अभी तक सिर्फ़ कुल चार दिन ही अच्छी बारिश हुई है, लेकिन सरोवर में अभी तक जरा भी पानी नहीं पहुँचा है। क्षेत्रीय रहवासी मनोज पंडित कहते हैं कि सरोवर तक पानी पहुँचने के रास्ते में एक नहर का निर्माण कार्य चल रहा है, यदि वह रास्ता बन्द न होता तो शायद सरोवर में थोड़ा सा पानी पहुँच सकता था, लेकिन मुझे लगता है कि कार्तिक पूर्णिमा तक सरोवर में पानी भरने वाला नहीं है… अब सब कुछ ब्रह्माजी पर ही है…"। लेकिन मानव-निर्मित आपदा पर ब्रह्माजी भी क्या करेंगे?गत एक वर्ष से राष्ट्रीय झील संरक्षण योजना के अन्तर्गत इस सरोवर के कायाकल्प और तलहटी में जमी गाद निकालने हेतु काम चल रहा है, जिसके लिये ठेकेदारों ने पूरी झील को खाली किया है, लेकिन शायद इसे पुनः भरने का काम परमात्मा पर छोड़ दिया है। हालांकि झील का लगभग 85% हिस्सा साफ़ करके गाद निकाली जा चुकी है, लेकिन झीलों को पानी सप्लाई करने वाली नहरों का काम अभी एक तिहाई भी खत्म नहीं हो सका है।

यदि सब कुछ ठीक रहा तो शायद यह समूचा काम अगले वर्ष नवम्बर तक खत्म होगा। नहर निर्माण के इंचार्ज ओपी हिंगर कहते हैं, "सरोवर के भरने का सिर्फ़ एक ही तरीका है, भारी वर्षा, हम इसमें कुछ नहीं कर सकते…"। सरकार के प्रोजेक्ट इंजीनियर आरके बंसल भी स्थिति से परेशान हैं, लेकिन सारा दोष वे कम वर्षा पर ही मढ़ते हैं। वे कहते हैं कि यह सामूहिक जिम्मेदारी है और इसमें किसी एक व्यक्ति को दोष देना ठीक नहीं है। इस सारी प्रक्रिया से मनोज पंडित बुरी तरह झल्लाते हैं और उस डेनिश इंजीनियर को याद करते हैं, जिसने यह सुझाव दिया था कि सरोवर को तीन भागों में बाँटा जाये और एक के बाद एक उसे खाली करके गाद निकाली जाये ताकि एकदम झील खाली न हो, लेकिन उसकी एक न सुनी गई।मनोज पंडित की शिकायत सही मालूम होती है, जब हम देखते हैं कि सरोवर की फ़ीडर नहर एकदम रेगिस्तान जैसी सूखी पड़ी है, क्या नहर का काम पहले नहीं किया जा सकता था? पुष्कर नगरपालिका के अध्यक्ष गोपाललाल शर्मा ठेकेदारों की कार्यपद्धति और काम की गति से खासे नाराज़ हैं, वे कहते हैं "दिल्ली में बैठे इंजीनियरों ने कम्प्यूटर पर बैठकर झील की सफ़ाई का कार्यक्रम बना लिया है, आप देखिये किस बुरी तरह से उन्होंने काम बिगाड़कर रखा है। सरोवर के गहरीकरण और गाद सफ़ाई के नाम पर ऊबड़खाबड़ खुदाई की गई है और उसे समतल भी नहीं किया गया है। घाटों के आसपास गहरी खुदाई कर दी गई है, जो कि डुबकी लगाने वाले श्रद्धालुओं के लिये खतरे का सबब बन सकती है और इससे पानी का स्तर भी एक सा नहीं रहेगा, कुछ घाट ऊँचे-नीचे हो जायेंगे। लेकिन यह सोच तो काफ़ी आगे की है, फ़िलहाल जबकि झील भरने के हल्के संकेत ही हैं, बदतर बात यह है कि तलछटी में भारी कीचड़ की वजह से वर्षाजल के लिये एक छलनी का काम करने वाली मिट्टी भी नष्ट हो रही है। सरोवर का जलचर जीवन पहले ही गणेश मूर्तियों के विसर्जन की वजह से समाप्त हो चला था। इन मूर्तियों पर लगे हुए जहरीले पेंट की वजह से सरोवर में मछलियों के जीवित बचने के आसार कम हो गये थे, हालांकि विसर्जन की इस परम्परा को बन्द कर दिया गया है। इस पवित्र पुष्कर सरोवर की वजह से यहाँ पर्यटन एक मुख्य आय का स्रोत है। टूरिस्ट एजेण्ट शर्मा कहते हैं कि पर्यटन उद्योग से पुष्कर शहर करोड़ों का व्यवसाय करता है, लेकिन पानी की कमी की वजह से लगता है इस वर्ष भारी नुकसान होगा। जापानी हरी चाय बेचने वाले सलीम कहते हैं यह सबसे खराब टूरिस्ट सीजन साबित होगा, मैंने अपने बचपन में सिर्फ़ एक बार 1973 में इस झील को सूखा देखा था।

स्थानीय व्यक्ति कहते हैं कि यदि आसपास के पहाड़ों पर लगातार चार घण्टे भी तेज बारिश हो जाये तो भी यह सरोवर भर जाये, लेकिन ऐसा होने की उम्मीद अब कम ही है। पुष्कर नगर में घूमते वक्त सतत यह महसूस होता है कि लगभग 500 मन्दिरों वाले इस शहर में सारे नगरवासी एक स्वर में यह प्रार्थना कर रहे हैं कि हल्की बारिश को तेज बाढ़ में बदल दें, ताकि सरोवर भर सके। शायद भगवान उनकी प्रार्थना सुन लें…


(मूल स्रोत: open)(लेखक का ईमेलः kabeer@openmedianetwork.in)(हिन्दी अनुवादः इण्डिया वाटर पोर्टल हिन्दी)